उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
माधो को इस भाव पर सौदा करने को कह, वह जंगल में चला गया। वहाँ लकड़हारे कटाई और चिराई कर रहे थे। उनके काम से सन्तुष्ट हो वह फलों के बगीचे में जा पहुँचा। चार बीघा भूमि में नींबू लगाये हुए थे। पेड़ अभी दो फुट तक ऊँचे हुए थे और अभी दो वर्ष में फल देने वाले थे। कुल पाँच सौ पेड़ थे। फकीरचन्द एक-एक पेड़ की देखभाल रखता था। उचित खाद, उचित मात्रा में जल और कीड़ें-मकोड़ों से उचित रक्षा की जाती थी। वहाँ से वह आम के बगीचे में चला गया। पचास पेड़ आम के थे।
सायंकाल वह घर पर आ पहुँचा। वहाँ लकड़ी के व्यापारी और माधो बैठे थे। व्यापारी लकड़ी का एक हजार रुपया जमा कराने आये हुए थे। रुपया गिन, तिजोरी में रख, फकीरचन्द ने रसीद दे दी और अपनी किताब में भी लिख लिया। तदनन्तर व्यापारी से हिसाब किया। उसकी बकाया रकम बता, शीघ्र देने को कह, उसको विदा कर दिया। अब वह अपना दिन का हिसाब करने लगा। जब हिसाब कर चुका तो अगले दिन के काम पर, किस-किसको कहाँ-कहाँ भेजना चाहिए, विचार करने लगा। सबका काम कागज पर लिख, उसने शेषराम और गिरधारी को, जो बाहर बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे, बुलाकर बता दिया।
अब फकीरचन्द ने स्नान किया और भोजन तैयार होने तक वह रामचन्द्र के विषय में पूछ-गीछ करने लगा। उसको मालूम हुआ कि वह दोपहर का गया हुआ अभी तक नहीं आया। इससे उसको चिन्ता लग गई। उसने घर के नौकर संतू को बुलाकर कहा, ‘‘जरा चौधरी के पास जाना और देखना कि मेहमान बाबू क्यों नहीं आये?’’
सन्तु गया और आधे घण्टे में लौट आधे घण्टे में लौट आया। उसके साथ ही रामचन्द्र और चौधरी भी आ गये। चौधरी ने बैठते ही कहा, ‘‘बाबू ! यह सेठ काम चला नहीं सकेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मेरे घर पहुँचने से पहले ही मजदूरों के घर में जाकर पूछने का यत्न करता रहा है। यह कहीं से पता लगाकर आया है कि चार रुपये महीने पर मजदूर मिल जायेंगे। जब यह मेरे पास आया और मैंने बताया कि आप मजदूर को कम-से-कम बीस रुपये मासिक देते हैं तो कहने लगा कि मैं इसको धोखा दे रहा हूँ। मैं इसमें कमीशन खा रहा हूँ।
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