उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
इस समय रामचन्द्र बोल उठा, ‘‘फकीर भैया ! वह मैं सब कर लूँगा। तुम निश्चिन्त रहो, जैसा तुम कहोगे वैसा ही करूँगा। बम्बई में भी मैं अपनी कोठी में काम कराता हूँ। यहाँ भी करा लूँगा।’’
‘‘अच्छा, एक बात करो ! तीन बजे के लगभग गाँव में चले जाना और रामहरष चौधरी को बुला लाना। मैं मजदूरों का प्रबन्ध उसके द्वारा करवा दूँगा।’’
‘‘जाऊँगा। कहाँ मिलेगा वह?’’
‘‘गाँव में किसी से पूछ लेना। सब उसके घर को जानते हैं। तीन बजे वह अपने मकान के सामने चौपाल पर बैठा, हुक्का गुड़गुड़ाता मिलेगा। एक बात का ध्यान रखना। उसमें स्वाभिमान की मात्रा कुछ अधिक है। इस कारण उसकी कोई बात पसन्द न भी हो तो चुप रहना, झगड़ा न करना।’’
फकीरचन्द दो बजे पम्प पर जा पहुँचा। गन्ने के खेतों की सिंचाई हो रही थी। फकीरचन्द का स्वभाव था कि वह प्रत्येक कार्य नित्य देखता था। पम्प ठीक काम कर रहा था। वहाँ से गन्ने के खेतों के निरीक्षण के लिए चला गया। गन्ने तीन फुट ऊँचे हो चुके थे और पर्याप्त पुष्ठ तथा रसयुक्त प्रतीत होते थे इस खेत को देख वह गेहूँ राही जाती देखने चला गया। वहाँ से वह माधों से मिलने गया। माधो नदी के किनारे पीपल की छाया में बैठा हुआ लकड़ी की ढुलाई देख रहा था। गेहूँ और भूसे का सौदा भी वही कर रहा था।
माधो ने बताया कि गेहूँ खलिहान में साढ़े तीन रुपये मन बिक जायगा और भूसा दो रुपये मन।
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