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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


आरा चल रहा था। कटे हुए शीशम के पेड़ों में से तख्ते काटे जा रहे थे। सेठजी ने पूछा, ‘‘क्या यहाँ ऐसे तख्तों की खपत है?’’

‘‘हाँ, गाँव में इमारती लकड़ी बहुत महँगी है। यह लकड़ी इमारत में लगाई जा रही है। मैं ये तख्ते अपने मकान के लिए बनवा रहा हूँ।’’

‘‘किधर बनवा रहे हो मकान?’’

‘‘खेतों के उस किनारे पर।’’

‘‘मकान कब तक बन जायगा?’’

‘‘इस वर्ष के अन्त तक मकान बनकर रहने योग्य हो जायगा।’’

फकीरचन्द को फलते-फूलते देख करोड़ीमल के मुख में लार टपक आई। मध्याह्न के समय फकीरचन्द सेठ को अपने घर ले गया। उसको भोजन कराकर विदा कर दिया। फकीरचन्द की माँ ने सेठ की पहचान कर रहा, ‘‘इस सेठ का यहाँ आना शुभ नहीं होगा।’’

‘‘परन्तु माँ जो कुछ होने वाला है, उसको हम रोक तो सकते नहीं। हाँ, उस गड़बड़ से स्वयं को बचाने का यत्न कर सकते हैं।’’

‘‘तुमको इन पैसे वालों से सतर्क रहना चाहिए। ये लोग परिश्रम करना तो जानते नहीं। केवल जोड़-तोड़ लगाना जानते हैं। ये व्यापारी हैं, तुम मजदूर हो। दोनों में भारी अन्तर है।’’

‘‘मैं समझता हूँ, माँ ! हमने जो कुछ किया है, उसको बहुत कम लोग समझते हैं। हमने परिश्रम किया है और उसके फल को अधिक करने के लिए पूँजी और संगठन का परिश्रम के साथ समन्वय किया है।’’

करोड़ीमल झाँसी गया और राजा साहब को एक बहुत बढ़िया सोने-चाँदी का सिगार-केस भेंट में देकर, नदी पार की भूमि के दो कितों का पट्टा ले गया।

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