उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
|
270 पाठक हैं |
बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
इंजिन का मिस्त्री तो नित्य काम करता था, परन्तु आटा चक्की और आरा तथा पम्प तो उस दिन चलते थे, जिस दिन उन पर काम करने वाला आदमी खाली होता। इसके साथ ही लकड़ी कटवाने का काम और फिर उससे इमारती सामान बनवाने का काम भी होता था।
मजदूर जो खेतों में काम करते थे, जब खाली होते थे, तब जंगल में कटाई का काम करते थे। यह सब बात उसने ‘सरल अर्थ व्यवस्था’ नामक पुस्तक में पढ़ी थी। उसने इसको काम में लाने में अपनी प्रतिभा का प्रयोग किया था। पुस्तक में लिखा था कि देहातों की निर्धनता का कारण यह नहीं है कि खेती-बाड़ी घाटे का व्यवसाय है। इसका कारण यह है कि इसका काम करने वाले बहुत-सा समय खाली रहते हैं और वे नहीं जानते कि अपना रिक्त समय किस प्रकार उपयोगी कामों में लगा सकें। जो किसान अपने रिक्त काल को उपयोगी कामों में लगा सकता है, वह निर्धन नहीं रह सकता।
अतः फकीरचन्द ने यह समझ रखा था कि खेतों में तो मिल-मिलाकर वर्ष में तीन मास ही काम होता है। इस कारण शेष नौ मास का काम ढूँढ़ना ही इस काम में सफलता प्राप्त करने का गुर है वह यही कर रहा था और उसको इसमें आशातीत सफलता मिल रही थी।
अभी गेहूँ की बोआई हो रही थी कि राजा साहब का मैनेजर देवगढ़ में आ गया। फकीरचन्द उससे मिलने गया। मैनेजर ने उसको पृथक् में ले जाकर पूछा, ‘‘फकीरचन्द ! काम कैसा चल रहा है?’’
‘‘काम कठिन अवश्य है, परन्तु मुझे इसमें सफलता मिल रही है।’’
‘‘कितनी भूमि खाली हो गई हैं?’’
‘‘जंगल तो पचास बीघा पर से कट गया है, परन्तु मैं बोआई चालीस बीघा पर ही कर सका हूँ।’’
|