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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘बड़ा धूर्त है ! पर मुझे क्या? मैं किसी से क्यों कुछ कहूँगा? पर मीना ! वह अच्छा आदमी नहीं है। कैद होने से पहले वह मुझको भी अपने मार्ग पर ले चलने का यत्न कर रहा था। यह तो भगवान् की कृपा ही समझो कि मेरे मन में कभी मैल नहीं आया।

‘‘मैं एक दुकान पर चौकीदारी करता था और वह मुझको कहता था कि उस दुकान की चोरी करने में मैं उसकी सहायता करूँ। उसका कहना था कि जितना मिलेगा, उसमें से आधा मुझको देगा।

‘‘मुझको वहाँ पर बहुत कष्ट था। चालीस रुपये में बहुत कठिनाई से निर्वाह होता था। दूध तो तीन वर्ष में एक-आध बार ही पीया होगा। कपड़े फट जाते थे, तो चाय-पानी बन्द करना प़ड़ता था। कभी बीमार हो जाता तो हस्पताल की औषधि खानी पड़ती थी। अपने पास तो दवाई के लिए एक पैसा भी नहीं बचता था। दो वर्ष से मैं यत्न कर रहा था कि कुछ रुपये बचें तो घर आऊँ, परन्तु बचते ही नहीं थे।

‘‘इसपर भी मेरी आत्मा चोरी में सहायता करने के लिए नहीं मानी। मैं इस पाप कर्म से बच गया।’’

अपनी पत्नी से मिल गिरधारी अपने साले शेषराम से और श्वसुर मंगतराम से मिलने गया। वहाँ जाकर उसको पता चला कि रुपये शेष ने भेजे हैं। उसको यह भी पता चला कि उसको देवगढ़ में ही नौकरी मिल सकती है। वह अपने परिवार से दूर रहते हुए ऊब गया था। इस कारण जब उसको पता चला कि पंजाबी बाबू ने उसको नौकर रख लेने का वचन दिया है, तो उसको संतोष हुआ।

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