उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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मोतीराम झाँसी चला गया। चौधरी रामहरष के सुझाव में उसको अपने पाँच हजार रुपये का सदुपयोग दृष्टिगोचर हुआ। उसको विश्वास था कि वह राजा से मिलकर, उनको अपने अनुकूल कर लेगा।
चौधरी को मोतीराम की मनोवृत्ति अति क्षुद्र प्रतीत हुई। उसको भय लग गया कि यह आदमी, स्वयं तो कुछ कर नहीं सकेगा, किन्तु दूसरे का काम बिगाड़ सकता है। उसको जहाँ अपने काम की चिन्ता थी, वहाँ गाँव के सैकड़ों प्राणियों के सुख-सुविधा का भी ध्यान था। वह प्रकृति से चौधरी था।
इस नई कठिनाई को देख वह इसका निराकरण करने के विषय में विचार करने लगा। इसके लिए वह अपने पत्तीदार के पास पहुँच, उसको पूर्ण परिस्थिति से अवगत करा, उसकी राय पूछने लगा। माधो ने सब बात सुनकर कहा, ‘‘चौधरी ! हमको इस झगड़ें में तटस्थ रहना चाहिए। जो काम करेगा, हम उसकी एजेण्टी कर लेंगे।’’
‘‘पर माधों !’’ चौधरी ने कहा, ‘‘फकीरचन्द के यहाँ आने से पहिले इन जंगलों में कोई जाता नहीं था। ललितपुर और झाँसी के कुछ लोगों ने जंगल काटने का ठेका लिया था और काम चला न सकने के कारण यहाँ से भाग गए थे। अब इस पंजाबी ने जब काम चालू कर दिया है तो उसके काम में विघ्न डालने से किसी का भी कल्याण नहीं हो सकता।’’
‘‘पर हम इसमें कर ही क्या सकते हैं? जब कर नहीं सकते तो व्यर्थ में दिमाग क्यों लड़ाएँ? जो होगा देख लिया जाएगा।’’
चौधरी को इससे सन्तोष नहीं हुआ। इस विषय में उसे अपनी आर्थिक हानि की भी सम्भावना थी। अतएव वह माधो से मिलकर फकीरचन्द के पास जा पहुँचा। सांयकाल का समय था। फकीरचन्द अपना हिसाब-किताब लिख रहा था। चौधरी उसके पास बैठ पूछने लगा, ‘‘बाबू ! काम कैसा चल रहा है?’’
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