लोगों की राय

उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

270 पाठक हैं

बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘चौधरी ! मैं तो यहीं किता लूँगा, नदी के पार वाले किते में इतनी लकड़ी नहीं जितनी इधर है। साथ ही मैं परदेशी को इस गाँव से भगा देना चाहता हूँ।’’

‘‘देखो मोतीराम ! नदी के इस पार वाली भूमि से तो लकड़ी बहुत कुछ कट चुकी है। उसमें व्यर्थ के झगड़े में समय गँवाने की बात है। झगड़ा समाप्त होने तक शेष लकड़ी भी कट जायगी।

‘‘मेरी राय मानो, तुम्हारे पास रुपया है; इस रुपये को बेकार बैठे-बैठे खाने की अपेक्षा कारोबार में लगा दो। मालामाल हो जाओगे। इस बाबू ने हमें रास्ता दिखाया है। हमें इससे लाभ उठाना चाहिए।’’

‘‘अच्छा, यह बताओ चौधरी ! तुम मेरा काम करोगे या फकीरचन्द का?’’

‘‘दोनों में से, जो मुझको कमीशन देगा, उसका।’’

‘‘धत् तेरे की। तो तुम मेरे और फकरीचन्द में स्पर्धा पैदा करना चाहते हो? यह तो बहुत बुरी बात है, चौधरी !’’

‘‘तुम एक का बना-बनाया काम बिगाड़ना चाहते हो। मुझको यह बुरा प्रतीत हो रहा है। जब तुम स्वयं अन्याय करते हो तो मुझसे न्याय की आशा क्यों रखते हो?’’

‘‘अच्छा देखा जायगा। मैं तो इस परदेशी को यहाँ से भगाकर ही दम लूँगा। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। जब यह रहेगा ही नहीं, तो स्पर्धा किससे होगी?’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book