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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘चौधरी ! इस मास के अन्त तक खेती के लायक भूमि चालीस बीघा तक हो जायगी। यहाँ पानी का प्रबन्ध हो गया है। नदी में पम्प लग रहा है। उससे सिंचाई हो सकेगी। मैं समझता हूँ कि इस वर्ष इतनी भूमि में बोआई हो जायगी।’’

‘‘और आदमी नौकर रखोगे?’’

‘‘हाँ, बीस आदमी रखने पड़ेगे। ललितपुर के सरकारी कृषिविभाग वालों से मेरी बातचीत हुई है। वहाँ के सुपरिन्टेंडेण्ट ने आकर देखने का वचन दिया है। साथ ही वे चाहते हैं कि वहाँ के एक आदमी से नये प्रकार के हल चलाने का ढंग मुझको सीख लेना चाहिए। ऐसे आदमी को यहाँ भेजने के लिए मुझको पचास रुपये उनके पास जमा कराने पड़ेंगे। मैं यह जमा करा रहा हूँ।’’

‘‘पर बाबू !’’ चौधरी ने अपने आने का प्रयोजन बताने के लिए कहा, ‘‘तुम्हारी उन्नति को देख लोग तुमसे ईर्ष्या करने लगे हैं।’’

‘‘चौधरी ! ईर्ष्या करने से ऐसा करने वाले को ही हानि होती है।’’

‘‘ठीक है, परन्तु ईर्ष्या के पश्चात् घृणा आ जाती है और घृणा का अन्त द्वेष में होता है।

‘‘मैं समझता हूँ कि गाँव में तुमसे द्वेष करने वाले उत्पन्न हो गये है।’’

‘‘पर मैं तो किसी का बुरा नहीं कर रहा। चौधरी जी ! आप बताइए वह है कौन? मैं उसको समझाने का यत्न करूँगा और मुझसे यदि कुछ सहायता हो सकी, तो मैं वह भी करूँगा।’’

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