उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
|
270 पाठक हैं |
बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘यह चोरी कैसे हो गई? बम्बई में एक करोड़ीमल है। उसकी बहुत बड़ी ऊन की कोठी है। किसान ऊन लेकर आते हैं। और सेठ रुपये के माल के दो आने देकर उनको टाल देता है। इस प्रकार वह करोड़ों रुपयों का मालिक बन गया है। मैंने उसके साथ वही किया, जो वह दूसरों के साथ करता है। उसके यहाँ नौकरी कर ली। एक दिन वह दूसरों के साथ करता है। उसके यहाँ नौकरी कर ली। एक दिन उसने मुझको पाँच हजार का चेक देकर बैंक से रुपया निकालने के लिए भेजा और मेरे साथ एक नैपाली चौकीदार भेज दिया।
‘‘नैपाली बहुत ही ईमानदार और मूर्ख होते हैं। वे चालीस-पचास रुपये महीने पर अपने मालिक के लिए जान तक दे देते हैं।
‘‘जब चेक मेरे हाथ में आया, तो मैंने रुपया उड़ा लेने की तरकीब सोच ली। हम दोनों बैंक में गये। वहाँ रुपया लेने वालो की भारी-भीड़ थी। मैंने चेक दिया और टोकन ले नैपाली को बैंक के बाहर ले आया। हम दोनों बाहर दरवाजे पर बैठ गये और चेक पास होने की प्रतीक्षा करने लगे। इसमें आधा घण्टा लगा। नैपाली को मैंने अपने पास से चाय पिलाई और उसको बैंक के बाहर बैठा, स्वयं भीतर जा, रुपया ले, बैंक के दूसरे दरवाजे से निकल गया। मैंने रुपया एक डिब्बे में बन्द कर, कोठरी, जिसमें मैं रहता था, के एक कोने की भूमि में गाड़ दिया।
तत्पश्चात् मैं सेठजी के पास चला गया मैंने जाकर कहा, ‘‘सेठ जी ! रुपया तो कोई हाथ से छीनकर ले गया।’’
‘‘मेरे पहुँचने से पहले नैपाली वहाँ पहुँच चुका था और पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जा चुकी थी। मेरे पहुँचते ही पुलिस को बुलाकर मेरा चोरी करने के अपराध में चालान कर दिया गया।
‘‘पहले तो मैं टाल-मटोल करता रहा; फिर मुझे खूब पीटा गया, इस पर भी मैंने कुछ नहीं बताया। मुझको चोरी के आरोप में तीन वर्ष का कठोर दण्ड हुआ।
|