उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘तीन वर्ष दण्ड भोगकर मैंने रुपया निकालने का यत्न किया। जिस कोठरी में मैं रहता था उसमें अब एक अन्य नौकर रहने लगा था। मैंने उससे मित्रता कर ली और एक दिन उसको शराबखाने में ले जाकर खूब शराब पिलाई। उसको वहीं बहोश छोड़ मैं उसकी कोठरी पर जा पहुँचा। चाबी मैंने उसकी जेब में से निकाल ली थी। भूमि खोद, डिब्बा निकाल, पाँच हजार के नोट लेकर यहाँ चला आया हूँ।
शेषराम को धन कमाने की यह विधि पसन्द नहीं आई। इसपर मोतीराम ने कहा, ‘‘जेल में अनपढ़ कैदियों को पढ़ाने के लिए एक बाबू सूर्यकान्त था। वह बम्बई में एक कपड़ा मिल में हड़ताल के समय मैनेजर का गला घोंटकर मार देने के अपराध में पाँच वर्ष का कठोर दण्ड भोग रहा था। वहाँ उसको कैदियों को पढ़ाने पर लगाया हुआ था। मैं भी उससे पढ़ता रहा। यह उसका मत है कि आज संसार में चोर और ठगों का राज्य है। ये सब धनी आदमी पक्के चोर हैं, इनका रुपया लेना कोई चोरी नहीं। इस कारण यह रुपया मैं अपना समझता हूँ।’’
‘‘पर दादा ! यह चोरी है। कानून से वर्जित है।’’
‘‘कानून भी चोरों का बनाया हुआ है। मैं ऐसे कानून को कानून नहीं मानता।’’
‘‘मानो न मानो, पर दण्ड के भागी तो बन ही जाओगे।’’
‘‘मैं अब पहले से अधिक अनुभवी हो गया हूँ। पहली बार मैंने एक खुली दुकान पर से रुपया उठाने का यत्न किया था। रुपया भी नहीं मिला और पकड़ा भी गया। दूसरी बार मैंने कुछ चतुराई से काम लिया। परिणाम यह हुआ है कि पकड़ा तो गया, परन्तु रुपया मिल गया। अब भविष्य में मैं ऐसा प्रबन्ध करना चाहता हूँ कि रुपया भी पा जाऊँ और पकड़ा भी न जाऊँ। अर्थात् मैं उन सब धनियों की भाँति हो जाऊँ, जो दूसरों के भाग का धन चुराते तो हैं परन्तु पकड़े नहीं जाते।’’
शेषराम एक सरल-चित्त मजदूर था। वह इस प्रकार के प्रलोभन की बात सुनकर भौंचक्क रह गया। इसपर भी उसको कुछ भीतर-ही-भीतर भय लगता था। उसकी अन्तरात्मा कहती थी कि यह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं हो सकता।
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