उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 270 पाठक हैं |
बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘एक पंजाबी ने राजा साहब के जंगल का पट्टा लिया है और वह जंगल कटवाकर बेच रहा है। उसने मुझको मजदूरों से काम करवाने पर लगाया हुआ है। तीस रुपये महीना देता है।’’
‘‘बस? यह तो कुछ नहीं।’’
‘‘पर दादा ! यहाँ तो मुझको तीस छोड़ बीस रुपये भी देने वाला कोई नहीं। जब से मैं नौकर हुआ हूँ घर पर सुख से रोटी मिलने लगी है। उससे पहिले तो हम दान-भिक्षा ले-लेकर ही पेट पालते थे।’’
‘‘पर शेष ! यह तीस रुपये तो बहुत कम है। कम-से-कम पचास होने चाहिएँ।’’
‘‘दादा ! तुम बताओ। तुमने पाँच वर्ष में पाँच हजार कैसे कमा लिया है? तुम कुछ करना-धरना तो जानते नहीं।’’
मोतीराम हँस पड़ा और कहने लगा, ‘‘मेहनत-मजदूरी से तो इतना कुछ मिल नहीं सकता। जानते हो गिरधारी बम्बई में साठ रुपये कमाता है और चालीस आप ही खर्च कर जाता है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह अब जीते जी घर लौटकर नहीं आ सकता।’’
‘‘तो फिर धन कैसे कमाया जा सकता है?’’
‘‘जैसे धनी लोग कमाते हैं। थोड़ी चतुराई से दूसरों के परिश्रम का मूल्य अपनी जेब में डाल लेने से।’’
‘‘तो तुमने यह भी चोरी किया है?’’
|