उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘मेरा मन कहता है कि एक दिन काम पर छुट्टी करो। सब काम करने वालों को और उनकी पत्नियों तथा बच्चों को कपड़े बाँटों और प्रत्येक वयस्क को बीस-बीस रुपये और अल्पायु वालों को दस-दस रुपये भत्ता दो। सबको घर बुलाकर भोजन कराओ और मिठाई बाँटों। इसके अतिरिक्त स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के लिए तीन हजार पृथक् रख दो।’’
‘‘बस? यह तो कुछ भी नहीं माँ ! तुमने कैसे समझ लिया कि मैं इतना भी नहीं करूँगा?’’
‘‘कल प्रातःकाल मकान की नींव रखो और उस अवसर पर पण्डित को दान-दक्षिणा दो।’’
‘‘और कुछ?’’
‘‘अपने मकान का नाम अपने पिताजी के नाम पर रखो।’’
इस प्रकार मकान की नींव रखकर, फार्म की वर्षगाँठ मनाने का निश्चय हो गया। उसी दिन काम पर जाकर फकीरचन्द ने सभी काम करने वालों के घर वालों की गणना करनी आरम्भ कर दी। वह जानना चाहता था कि कितना कपड़ा और कितना रुपया व्यय होगा। साथ ही वह यह जानना चाहता था कितने लोग भोजन करने वालें होंगे। एक-एक कर्मचारी को वह बुलाता और उससे विवरण लिखता जाता। एक मजदूर से उसने पूछा–
‘‘क्या नाम है?’’
‘‘मनोहर।’’ उसने उत्तर दिया।
विवाह हुआ है अथवा नहीं?’’
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