उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
माँ की सूझ-बूझ इतनी दूर तक जाती थी, परन्तु काम होता और रुपया आता देख, लड़के के काम में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाती थी।
एक वर्ष व्यतीत होने तक पचास एकड़ भूमि खेती योग्य हो गई थी। नदी पर इंजिन तथा आरा लग चुका था। पम्प के लिए आर्डर दिया जा चुका था और कुछ ही दिनों में लगने वाला था।
फकीरचन्द ने एक वर्ष का हिसाब बनाया और माँ को सुनाने चला आया। उसने बताया, ‘‘माँ ! कल हमको काम का मुहूर्त्त किए एक वर्ष हो चुका है। इतनी अवधि में हमने पर्याप्त उन्नति की है। अतः भगवान् का धन्यवाद करना चाहता हूँ। कल मैं मकान की नींव रखवा इस काम का नया अध्याय आरम्भ करूँगा।’’
माँ ने कुछ विचारकर कहा, ‘‘कितना लाभ हुआ है तुमको एक वर्ष में?’’
‘‘माँ ! मैंने हिसाब बनाया है। हमने छः सौ रुपये की पूँजी से काम आरम्भ किया था। अब वह बीस हजार के ऊपर हो गई है। अर्थात् उन्नीस हजार से ऊपर आय हुई है। इसमें वह धन सम्मिलित नहीं, जो हम अपने खाने-पीने के लिए निकाल चुके हैं।’’
माँ ने यह आँकड़े सुनकर संतोष अनुभव किया और कहा, ‘‘कुछ धर्म-कर्म भी तो करना चाहिए।’’
‘‘हाँ, बताओं माँ ! क्या करूँ?’’
‘‘जो कहूँगी, मानोगे न?’’
‘‘माँ ये खेत तुम्हारे हैं, इनकी आय तुम्हारी है, मैं भी तो तुम्हारा ही पुत्र हूँ। भला तुम्हारी बात नहीं मानूँगा तो किसकी मानूँगा?’’
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