उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘इंजिन, जहाँ आरा चलायेगा, वहाँ खेतों में पानी भी देगा। साथ ही खाली समय में आटा पीसने की चक्की चलायेगा।’’
‘‘कितना रुपया लगेगा इसमें।’’
‘‘ढाई हजार इंजिन लगवाने में और दो हजार आरा-मशीन तथा चक्की लगवाने में। पाँच सौ रुपया पम्प में भी लगेगा। इस प्रकार पाँच हजार के लगभग व्यय हो जाएगा।’’
‘‘फकीर !’’ माँ ने कहा, ‘‘सोच-विचार कर आगे बढ़ों। ऐसा न हो कि वेग से भागते-भागते शीघ्र ही दम तोड़ दो।’’
‘‘माँ ! मैंने सब गिनती-मिनती कर ली हैं। मुझकों पूर्ण विश्वास है कि इंजिन लग जाने से इमारती लकड़ी तैयार होने लगेगी और खूब पैसा आने लगेगा।’’
फकीरचन्द को एक गुर का पता चल गया था। वह समझ गया था कि रुपये की पूँजी का रूप देने से रुपया ही रुपया उगलता है। पूँजी से अपने परिश्रम के फल को कई गुणा अधिक किया जा सकता है। इससे धन मिलता है और उस धन को पुनः काम में लगाकर और अधिक धन पैदा किया जा सकता है।
इस कारण वह मजदूरों को काम पर लगा, उनकी मेहनत को संगठित कर, उनसे लाभ उठा रहा था। अब वह इस बात पर तुल गया था कि अपने मजदूरों की मेहनत को भी कई गुणा करने के लिए मशीनें लगाएगा। इसमे वह और भी अधिक आय होने की आशा करता था।
वह मजूदरों को प्रचलित वेतन से अधिक देता था। अधिक वेतन देने का अर्थ था मानों वह मशीन को तेल दे रहा है।
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