उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
बिहारीलाल और फकीरचन्द को अपने पास बैठाकर खिलाती। मिट्टी के तेल के लैम्प के प्रकाश मे बिहारीलाल अपना पाठ याद करता और फकीरचन्द दिन-भर का हिसाब लिखता और अगले दिन का कार्यक्रम बनाता।
फकीरचन्द माँ को नित्य जंगल में रोटी देने आती देख दुःख अनुभव करता था। इस कारण उसने निश्चय कर लिया कि वह जंगल में ही मकान बनवा लेगा। एक दिन जब माँ उसे दोपहर का खाना खिलाने आई हुई थी, तो वहा माँ को वहाँ ले गया, जहाँ उसने मकान के लिए भूमि छोड़ रखी थी। उसने माँ को बताया, ‘‘माँ ! यहाँ पर मैं अपना मकान बनवाना चाहता हूँ। मकान के सात कमरे होंगे, तीन बरामदे होंगे, रसोई, टट्टी, स्नानागार होगा। मकान के पिछवाड़े में कुआँ बनवाऊँगा और एक ओर फलों का बगीचा और फुलों का उद्यान होगा। उस ओर सब्जी के लिए एक खेत का प्रबन्ध कर रहा हूँ।’’
माँ ने कहा, ‘‘फकीर ! हवाई किले नहीं बनाया करते। अपना ध्यान खेत तैयार करने में लगाओ। यह सब पीछे होता रहेगा।’’
‘‘होगा तो धीरे-धीरे ही; परन्तु विचार तो अभी से करना होगा। तुम नित्य दोपहर के समय इतनी धूप में खान लेकर आती हो। यह ठीक नहीं। यहाँ मकान बन गया तो निस्सन्देह तुमको आराम मिलेगा।
‘‘मेरे आराम की बात छोड़ों। पाँच सौ एकड़ भूमि का ढाई हजार रुपया लगान देना पड़ेगा। इसका प्रबन्ध पहले होना चाहिए।’’
‘‘वह तो होगा ही माँ ! उसके बिना काम कैसे चलेगा? माँ ! जानती हो, इन पाँच महीनों में हमारे पास कितना रुपया जमा हो गया है? पाँच हजार और अभी तो जंगल का छोटा-सा अंश ही कटा है।’’
‘‘मैंने एक बात और की है। शहतूत, शीशम और नीम के पेड़ों को कटवा-कटवाकर मैं पृथक् रखता रहा हूँ। नदी के किनारे एक ऊँची जगह पर एक इन्जिन और आरा-मशीन लगवा रहा हूँ। इस लकड़ी के तख्ते बनवाकर इमारती लकड़ी के रूप में बेचूँगा। इससे तो लाभ और भी अधिक होगा।
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