उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
सब लोग धीरे-धीरे गाँव की ओर चल पड़े। चलते हुए बड़ी आयु के दुकानदार ने फिर कहा, ‘‘अच्छा, मैं अन्तिम बात कह देता हूँ। रुपया नौ सौ दे देंगे।’’
फकीरचन्द समझ गया कि रुपया पाँच सौ से नौ सौ हो गया है इस कारण माल अवश्य हजार रुपये से अधिक का है। इस पर भी इस बार तो वह अपनी बात पर दृढ़ रहने में ही लाभ समझता था। उसने फिर कह दिया, ‘‘मुझे जो कहना था, सो मैंने निवेदन कर दिया है। यदि स्वीकार हो तो लकड़ी पर सफेदी के निशान लगवा देता हूँ। माल तब उठाने दूँगा, जब रुपया दे दिया जाएगा।’’
वे जंगल से आधा मार्ग गाँव की ओर आ चुके थे। एकाएक वही बड़ी आयु वाला खड़ा होकर और फकीरचन्द को रोककर कहने लगा, ‘‘बाबू ! ठहरो ! हम तनिक पृथक् में बात कर लें।’’
फकीरचन्द एक ओर हट गया और वे परस्पर कुछ फुस-फुस करने लगे। दो मिनट तक बात कर वे उसके पास आये और बोले, ‘‘अच्छा, सारे जंगल का भाव कर लो। कटवाएँगे भी हम, चिरवाएँगे भी हम और यहाँ से उठाकर भी हम ले जाएँगे। बताओं क्या लोगे !’’
फकीरचन्द ने गाँव की ओर चलते हुए कहा, ‘‘पहले एक बात का तो निर्णय होता नहीं। इतनी बड़ी बात का कैसे निर्णय हो जाएगा?’’
‘‘सारा सौदा एकदम करते हैं।’’
‘‘जी, नहीं; मैं एकदम सौदा करना नहीं चाहता। इतने माल का एक हजार रुपया देना हो तो बयाना दीजिए और बताइये, कब तक माल उठा लेंगे।’’
‘‘बहुत हठी हो, बाबू !’’
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