उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
फकीरचन्द ने कुछ विचार कर कहा, ‘‘यों तो इसका मूल्य डेढ़ हजार रुपये होना चाहिए, परन्तु मैं नकद रुपया चाहता हूँ, इस कारण एक सहस्त्र पर दे दूँगा।’’
इसपर दुकानदार हँसने लगे। फकीरचन्द गम्भीर बना रहा। उससे व्यापारी भाव-ताव करने लगे। एक, जो उनमें सबसे बड़ी आयु का प्रतीत होता था, कहने लगा, ‘‘यह तो बहुत अधिक है बाबू ! पचास-साठ और अधिक दे सकते है।’’
इसपर फकीरचन्द ने कह दिया, ‘‘चलिए गाँव में। वहाँ माँ ने आपके लिए भोजन तैयार किया हुआ है, जिससे आप ढाई बजे की गाड़ी पकड़ सकें।’’
दुकानदार इसका अर्थ समझने के लिए एक-दूसरे का मुख देखने लगे। फकीरचन्द समझा कि बात ठिकाने की हो गई है। वह गम्भीर बना हुआ देवगढ़ की ओर मुख कर खड़ा हो गया। बड़ी आयु वाला दुकानदार फिर कहने लगा, ‘‘बाबू ! एक बात बता दो कि कम-से-कम कितना लोगे, जिससे समय व्यर्थ न जाए और हम घर लौट जाएँ।’’
‘‘आइये चलें। बात एक बार की जाती है, बार-बार नहीं। मैंने सब हिसाब लगाकर ही आपको मूल्य बताया था। मैं जानता हूँ कि यदि मेरे पास रुपया हो तो मैं लकड़ियों को छोटा चीला बनवा कर इसका ही दो हजार पैदा कर सकता हूँ। परन्तु मेरे पास न तो फालतू रुपया है और न ही समय। इस कारण आधा मूल्य ही बनाता है।’’
इस पर एक और बोल पड़ा, ‘‘अच्छा सात सौ ले लो।’’
फकीरचन्द समझ गया कि वे उसके दाम पर आ जाएँगे। इस कारण उसने कहा, ‘‘देखिए, मैं व्यापारी नहीं हूँ। मैं भाव-ताव करना नहीं जानता। न ही मैं इस प्रकार के काम में समय गँवाना चाहता हूँ।’’
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