उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
व्यापारी यह बात भाँप गये थे कि फकीरचन्द को रुपये की जरूरत है। इस कारण वे माल बहुत ही सस्ते दामों पर पाने की आशा करके वहाँ आये थे। वे तीनों परस्पर मिल गये और माल का मूल्य गिराने का यत्न करने लगे। उन्होंने लकड़ी देखी और पाँच सौ रुपया मूल्य लगा दिया।
फकीरचन्द को इतने मूल्य की आशा नहीं थी। यद्यपि उसे लकड़ी के तोल का ठीक ज्ञान नहीं था, इस पर भी वह अपने खर्चे से हिसाब लगाने लगा। उसका उस कटाई पर दो सौ रुपया खर्च आया था। घर के लिए जो उसने साठ रुपये खर्च किए थे, उसको वह अपना वेतन समझता था। एक सौ रुपया राजा साहब का भाग, इस प्रकार तीन-सौ तीस रुपये में बेच देने को तैयार था। अब व्यापारियों को उस लकड़ी का पाँच सौ रुपया मोल लगाते देख, वह अपनी गणना पर सन्देह करने लगा।
इसके साथ ही फकीरचन्द ने उनको इशारों से बातें करते देख लिया था। इससे वह सतर्क हो गया। उसने कह दिया, ‘‘आप मुझे बालक समझकर ऐसी बात कह रहे हैं। यह मूल्य बहुत कम है।’’
‘‘तो तुम बताओ कि कितना यह माल होगा और कितना इसका मूल्य तुम्हें चाहिए?’’
‘‘देखिए, मेरा इतना ज्ञान नहीं कि मैं इतना अनुमान लगा सकूँ। मुझको तो यह पता है कि मेरा इसपर कितना मूल्य लगा है और कितना मुझको मिलना चाहिए।’’
‘‘यही तो पूछ रहे हैं।’’
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