उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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फकीरचन्द ने पहिला कुल्हाड़ा भगवान् का नाम लेकर स्वयं चलाया और पश्चात मजदूर काम करने लगे। माँ घर लौट गई भोजन लेकर आई और फकीरचन्द अपने मजदूरों के काम में हाथ बँटाता रहा। माँ भोजन लेकर आई और फकीरचन्द ने नदी के किनारे, एक पीपल के पेड़ की छाया में बैठ भोजन किया और एक घण्टा विश्राम कर फिर मजदूरों से काम लेना आरम्भ कर दिया। इस समय तक मजदूर भी भोजन तथा विश्राम कर चुके थे।
माँ घर लौट गई। सायं छः बजे काम समाप्त किया गया। जब अगले दिन लकड़हारे काम कर रहे थे, फकीरचन्द अपना कार्यक्रम बना रहा था। अगले दिन उसने लकड़ी चीरने वालों को ढूँढ़ना आरम्भ कर दिया। इसके लिए उसको ललितपुर जाना पड़ा और वहाँ से आरे ले आया। उसने देवगढ़ के दो-तीन आदमियों को पेड़ चीरने के काम पर लगा दिया। पेड़ को चीरकर टुकड़े किये जाने लगे और फिर उनको छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाने लगा।
इस प्रकार एक मास तक काम चलता रहा। इस समय तक फकीरचन्द के पास एक अच्छा स्टॉक लकड़ी का जमा हो गया। काम करने वालों के वेतन का हिसाब किया गया। कुल वेतन एक सौ चालीस रुपये देना पड़ा। इस प्रकार दो सौ रुपये जमा पूँजी में से खर्च हो गये।
फकीरचन्द को इस बात का ज्ञान था कि उसके पास पूँजी कम है। इस कारण उसको लकड़ी बेचने की चिन्ता होने लगी। इसके लिए उसने गाँव के लकड़ी बेचने वाले से बात की, परन्तु वह नकद खरीद नहीं सकता था। उसका प्रस्ताव था कि अभी लड़की को सूखने दिया जाए फिर ज्यों-ज्यों बिकती जाएगी, वह दाम फकीरचन्द को देता जाएगा। यह बात फकीरचन्द की समझ में नहीं आई। वास्तव में गाँव में इस बात को समझने वाला कोई था ही नहीं कि पूर्ण जंगल गाँव वालों के पास बेचना होगा, तो वह सौ वर्ष में भी समाप्त नहीं होगा। फकीरचन्द को गाँव के किसी आदमी से सहायता की आशा नहीं रही तो वह ललितपुर जा पहुँचा वहाँ कई लकड़ी के थोक व्यापारियों से बात करने पर तीन व्यापरी देवगढ़ आकर लकड़ी को देखने के लिए तैयार हो गए।
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