उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
फकीरचन्द समझता था कि समय ही धन है। इस कारण वह इसको व्यर्थ गँवाना नहीं चाहता था। वह लोहार के घर गया और उसको चार कुल्हाड़े बनाने के लिए कह, पुनः मजदूर ढूँढ़ने लगा। इसमें भी उस दुकानदार ने उसकी सहायता की। उसने तीन आदमियों को बुलाकर फैसला करा दिया। बीस रुपये महीने पर वे रख लिये गये। दुकानदार ने कहा भी, ‘‘बाबू ! बीस रुपये कुछ अधिक अवश्य हैं। परन्तु ये आदमी काम मेहनत से करेंगे और छुट्टी बहुत कम करेंगे।’’
फकीरचन्द ने उन मजदूरों को पाँच-पाँच रुपये पेशगी देकर अपने घर पर अगले दिन प्रातः छः बजे आने को कह दिया।
कुल्हाड़े सायंकाल मिलने वाले थे, इस कारण फकीरचन्द घर जाकर मध्याह्न का भोजन कर माँ और भाई को साथ लेकर जंगल देखने चला गया। वह निश्चिय करना चाहता था कि कहाँ से काम आरम्भ करे।
जंगल के उस कोने से, जो गाँव के समीप था, वह कटाई आरम्भ करना चाहता था। साथ ही उसने मकान बनवाने के लिए स्थान का भी निश्चय कर लिया और वहाँ से पचास गज लम्बी और पचास गज चौड़ी जगह चुनकर निशान लगा दिया गया।
अगले दिन प्रातःकाल माँ और दोनों भाई, मजदूरों और कुल्हाड़ों को लेकर जंगल में जा पहुँचे। माँ एक थाली में रोली और धूप ले गई थी। वहाँ उस स्थान पर, जहाँ कटाई आरम्भ होने वाली थी, माँ ने थाली में रोली से ‘ओ3म,’ बनाकर गायत्री मन्त्र द्वारा उसका पूजन किया और परमात्मा से प्रार्थना की कि उनके कामों में ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करे।
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