लोगों की राय

उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

270 पाठक हैं

बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘तो चलो, देख लो।’’

फकीरचन्द मकान देख, पसन्द कर, माँ, भाई और सामान को वहाँ ले गया। चौधरी के हाथ पर, जो अभी भी उस मकान के बाहर खड़ा था, उसने पाँच रुपये का नोट रख धन्यवाद कर दिया।

सबसे पहले मकान के दरवाजे खोल उसको हवा लगाई गई, फिर रसोई-घर को साफ किया गया जलाने के लिए लैम्प तथा खाने के लिए आटा-दाल खरीद कर लाया गया।

उनको वहाँ पहुँचते-पहुँचते और खाना बनाते तथा खाते रात हो गई। उस रात तो वे मकान की छत पर ही सोये। मकान अभी भीतर से साफ नहीं हो सका था। अगले दिन स्नानादि से निवृत्त होकर फकीरचन्द लकड़ी कटवाने का प्रबन्ध करने घर से निकल गया और माँ मकान की सफाई कर, रहने योग्य बनाने में लग गई। जाने से पहले फकीरचन्द माँ को कह गया था कि मकान को इतना साफ-सुथरा बनाना है, जितना इस स्थान पर बन सकता है। वह कमाना चाहता है, जीने के लिए। वह कमाने के लिए जीना नहीं चाहता। उसने कहा, ‘‘माँ ! करोड़ीमल बनने का विचार नहीं रखता। मैं अपनी कमाई अपने लिए, अपने बन्धु-वान्धवों के लिए तथा अन्य मित्रों और परिचितों के लिए व्यय करने की वस्तु समझता हूँ।’’

‘‘ठीक है, फकीर ! पर शेखचिल्लियों की भाँति स्वप्न मत देखो। पहले कमाओ और पीछे व्यय करने की बात भी देख लेना।’’

फकीरचन्द लकड़हारों के लिए चौधरी के पास गया और उससे कहने लगा, ‘‘चौधरी ! इस गाँव में लकड़हारे मिल सकेंगे क्या?’’

‘‘हाँ बेटा ! हैं तो, परन्तु ललितपुर गये हुए हैं। दो-तीन दिन में आयेंगे तब मिलवा दूँगा।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book