उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 270 पाठक हैं |
बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
फकीरचन्द ने कहा, ‘‘राजा साहब से हमने जंगल की भूमि का एक किता पट्टे पर लिया है। उसका प्रबन्ध करने आया हूँ। मैं हूँ, मेरी माँ है और मेरा भाई है। हम इस गाँव में रहना चाहते हैं। इस कारण मैं गाँव के चौधरी से सहायता लेने आया हूँ।’’
‘‘ओह? तो तुम हो, जो इस जंगल की भूमि में कमाने आए हो। राजा साहब बहुत ही चालाक आदमी है, जो गरीब आदमियों को धोखा देकर यहाँ बुलाते हैं और फिर यहाँ की जलवायु अनुकूल न होने से, उनके मर जाने पर और भूमि खाली होने पर, मरने वाले के संस्कार के लिए लकड़ी का भी मूल्य माँग लेते है।’’
फकीरचन्द राजा साहब के चरित्र की यह व्याख्या सुन काँप उठा। इसपर भी वह इतनी दूर आकर वापस लौटने के विषय में विचार भी नहीं कर सकता था। वह कुछ देर तक चौधरी का मुख देखता रहा फिर बोला, ‘‘चौधरी साहब ! यह भयानक बात मेरी माँ को बताने की कृपा मत करना। यह सुन तो बेचारी का ऐसे ही प्राणांत हो जाएगा।
‘‘मरने के विषय में तो यहाँ रहने के पश्चात् विचार कर लेंगे। पहले रहने की समस्या सुलझानी चाहिए। हम इतना ध्यान सदा रखेंगे कि हमारे संस्कार के लिए लकड़ी घर में जमा रहे, जिससे राजा साहब को उसके लिए कष्ट न करना पड़े।’’
चौधरी हँस पड़ा। फकीरचन्द ने आगे कहा, ‘‘हमें ठहरने के लिए एक मकान दीजिए। हम किराया देंगे।’’
किराये की बात सुन चौधरी ने हुक्के की नाल को एक ओर कर पूछा, ‘‘पाँच रुपये मासिक पेशगी दोगे? इतने पैसे जेब में हों तो मकान सामने हैं।’’
‘‘दे दूँगा।’’
|