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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘जी, इसी कारण तो आया हूँ। देवगढ़ राजा साहब की जमींदारी है। आपका वहाँ व्यवहार होना स्वाभाविक है। इस कारण यदि आप वहाँ के किसी आदमी के नाम चिट्टी दे दें तो मुझको कोई जमादार के रूप में काम करने वाला आदमी मिल सकेगा। मैं इसके लिए आपका बहुत अनुगृहीत रहूँगा।’’

‘‘क्या करोगे जमादार रखकर?’’

‘‘मैं सब प्रकार से परदेशी हूँ। मुझको कोई साहयक, कम-से-कम एक वर्ष के लिए तो चाहिए ही।’’

मैनेजर फकीरचन्द्र की कार्यपटुता देखकर चकित रह गया। इसपर भी उसने कहा, ‘‘देखो, यदि मैंने किसी आदमी को पत्र दिया, तो वह समझेगा कि तुम राजा साहब के कोई सम्बन्धी हो और वह तुमको लूटने का यत्न करेगा। इस कारण मेरी सम्मति तो यह है कि तुम अपने आप वहाँ के चौधरी रामहरष से मिल लेना। वह तुम्हारी सहायता कर देगा।’’

मैनेजर की युक्ति फकीरचन्द की समझ में आ गई। उसने बिना किसी प्रकार का परिचय-पत्र लिए देवगढ़ जाने का विचार कर लिया। अगले दिन प्रातः दस बजे की गाड़ी से चलकर वे तीन बजे जिरौन जा पहुँचे। वहाँ से वे एक बैलगाड़ी में सवार हो देवगढ़ चले गये।

फकीरचन्द पूछता हुआ चौधरी रामहरष के घर जा पहुँचा। चौधरी अपने घर के बाहर चौपाल पर बैठा हुक्का पी रहा था।

फकीरचन्द ने गाड़ी दूर ही खड़ी कर दी और उतरकर चौधरी के पास आकर कहने लगा, ‘‘पाँय लागूँ, चौधरी !’’

‘‘आओ भाई, बैठो। बताओ क्या चाहते हो?’’

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