उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
फकीरचन्द को अपने गणित के मास्टर का कथन स्मरण हो आया था। मास्टर ने कहा था कि भूमि सबसे बड़ी पूँजी है। उसने खेती-बाड़ी की पुस्तकों में पढ़ा था कि गेहूँ का पेड़ दो वर्ग इंच भूमि पर पैदा होता है और एक बीज से दो सौ दाने उतपन्न होते हैं। इतनी भूमि को जोतने और बोने के लिए बहुत कम मेहनत लगती है। अर्थात् एक दाना गेहूँ से और एक खुरफा चलाने से दो सौ गेहूँ के दाने उत्पन्न हो सकते हैं। सिद्धान्त से उसकी समझ में यह आ रहा था कि वह अतुल धन-सम्पदा का स्वामी बनने वाला है। वह समझता था कि यदि उसका गणित ठीक है, तो वह निर्धन नहीं रह सकता।
इस प्रकार कल्पना करते हुए वह गाड़ी में बैठा चला जा रहा था। सामने की सीट पर माँ चिन्तित मुद्रा बनाये हुए बैठी थी। उसको कुछ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि माँ को अभी भी उसके सफल होने की आशा नहीं। माँ दिन में दो-ढाई रुपया नित्य कमा लेती थी और वह भी तो नौकरी से रुपया-डेढ़-रुपया नित्य लाने लगा था। इस सबको छोड़-छाड़ वे काल्पनिक आय के पीछे भाग खड़े हुए थे। कहीं वह असफल हुआ तो माँ का तो दुःख से ही देहान्त हो जाएगा। इस विचार के आते ही उसका हृदय काँपने लगा।
मध्याह्नोत्तर वे झाँसी जा पहुँचे। उन्हें वहाँ पर गाड़ी बदलनी थी। वे डाक गाड़ी पर सवार थे, जो जिरौन स्टेशन पर खड़ी नहीं होती थी।
झाँसी पर उतर, फकीरचन्द माँ और भाई को धर्मशाला में ले गया। वहाँ उन्होंने स्नानादि किया और बाजार से सामग्री लाकर खाना बनाया और खाया। उसी सायंकाल वह राजा साहब के मैनेजर से मिलने गया और उसने बताया कि वह अपनी माता तथा भाई को लेकर आ गया है और अगले दिन प्रातःकाल ही भूमि पर जा रहा है।
मैनेजर को आशा नहीं थी कि वह इतनी जल्दी भूमि पर काम करने के लिए आ जायगा। वह फकीरचन्द को उत्साह से भरा हुआ देख कहने लगा, ‘‘फकीरचन्द ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि तुम यह कार्य करने के लिए उद्यत हो। किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो बताओ।’’
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