उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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सेठ करोड़ीमल दिल्ली में उतर गया, परन्तु फकीरचन्द के मन में एक विचित्र प्रशंसा और ग्लानि भर गया। दिल्ली में डिब्बा सवारियों से भर गया। इस कारण किसी व्यक्ति से विशेष बातचीत नहीं हो सकी। माँ और लड़को ने दिल्ली स्टेशन पर ही हाथ-मुख धो जलपान किया।
गाड़ी चली तो फकीरचन्द पुनः सेठ के विषय में विचार करने लगा। सेठ ने कहा था कि ‘खेती-बाड़ी के काम से आय की आशा बच्चों की-सी बात है।’ परन्तु फकीरचन्द समझता था कि सेठ कुछ अच्छा आदमी नहीं है। उसने एक रुपया बाबू को देकर डिब्बे को ताला लगवा रखा था। इसका परिणाम सेठ के लिए और फकीरचन्द के अपने लिए तो सुखकारक ही हुआ। इसपर भी था यह अनुचित।
फिर वह विचार करता था कि सट्टा करना तो जुआ है और यह काम ठीक नहीं। इसपर भी उसको यह जानकर विस्मय हुआ था कि इस बुरे काम से ही सेठ के पास करोड़ों रुपये एकत्रित हुए हैं।
सेठ की तुलना में वह अपने कार्य पर विचार कर रहा था। अपने कार्य से वह करोड़ों का स्वामी होने की तो आशा नहीं करता था। इस पर भी वह मन में विचार करता था कि उसका काम सम्मान-युक्त है। उसकी माँ ने उसको एक बार कहा था कि उसका कठिनाई धनाभाव के कारण ही है। साथ ही माँ ने कहा था कि धर्म का त्याग कर वह धन पाना नहीं चाहती। इस पर उसने माँ से, जो उसके सामने की सीट पर बैठी थी, पूछ लिया, ‘‘माँ ! तुम सेठ को कैसा आदमी समझती हो?’’
‘‘देखो बेटा काम तो अच्छा नहीं है, परन्तु इसमें वह दोषी नहीं। कानून इस बात को वर्जित नहीं बताता। जैसे चोरी अथवा जुआ कानूनन वर्जित हैं, वैसे ही यह वर्जित नहीं है। इस कारण मैं कौन हूँ, उसको पापी कहने वीली ! फिर भी मेरा कहना है कि वह काम हमारे योग्य नहीं है।’’
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