उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
सेठानी ने बताया, ‘‘बाजरे की है।’’
रोटी के साथ मिर्च का अचार था। इस प्रकार उन्होंने भोजन किया, पानी पिया और शेष बची हुई रोटियों को कटोरदान में बन्द कर दिया। फकीरचन्द मन में विचार करता था कि यह भी धनी होने का एक ढँग है। इस समय करोड़ीमल ने पूछा, ‘‘फकीरचन्द ! खेती-बाड़ी करने जा रहे हो?’’
‘‘मैं समझता हूँ कि तुम नहीं कर सकोगे।’’
‘‘मैं यत्न करने जा रहा हूँ। युक्ति से तो खेती-बाड़ी से धन कामना सरल है। शेष चलकर देख लूँगा। देखिये सेठजी ! मेरी योजना यह है–मैं जंगल कटवाऊँगा और लकड़ी बेचकर निर्वाह करूँगा। मुझको तो इसमें भारी लाभ प्रतीत होता है।’’
‘‘मैने तो सोने के व्यापार में ही ये करोड़ों कमाये हैं। मैं इसको ही धन कमाने का सबसे सुगम उपाय समझता हूँ।’’
‘‘पर सेठजी ! सोने के व्यापार में आटा भी तो हो सकता है?’’
‘‘कौन-सा व्यापार ऐसा है, जिससे घाटे की सम्भावना न हो?’’
‘‘खेती-बाड़ी में घाटे की सम्भावना न के समान है। इसमें एक ही भय है कि कोई अपनी आय से अधिक खर्च कर सकता है। इस लिए यदि मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ साधारण तथा कम रखे और उनको अपने घर में ही उत्पन्न करने का यत्न करे, तो लाभ-ही-लाभ हैं।’’
‘‘अपनी आवश्यकताएँ घर में कैसे उत्पन्न कर सकते हो?’
‘‘मनुष्य की आवश्यकताएँ तो भोजन और वस्त्र ही हैं न? ये दोनों वस्तुएँ घर पर बन सकती हैं।’
सेठजी ने कह दिया, ‘‘तुम अभी बच्चों की-सी बातें करते हो।’’
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