उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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आज फकीरचन्द अपने काम के दूसरे वर्ष की हानि-लाभ का ब्यौरा बना रहा था। उसने सब-कुछ गिन, पूर्ण हिसाब का चिट्ठा बना लिया था। अपने चिट्टे में लाभ की राशि देख तो वह स्वयं भी चकित हो गया। उसने अपनी माँ को बुलाया और उसको हिसाब समझाने लगा। इस समय पन्नादेवी राम को साथ लिए हुए वहाँ आ पहुँची। पन्नादेवी ने उसके लाभ के विषय में राम के सन्देह का उल्लेख कर कहा, ‘‘तनिक इसको समझाओ बेटा ! कि इस काम में लाभ कैसे सम्भव हो सकता है?’’
फकीरचन्द ने कहा, ‘‘माँजी ! पिछले वर्ष बीस हजार के लगभग लाभ हुआ था। माँ ने उसमें से पाँच हजार दान-दक्षिणा में दिलवा दिया था। इस वर्ष मेरी सम्पत्ति, जो मैंने आज ही गिनी है, पचपन हजार के लगभग है। इसका अर्थ यह हुआ कि मुझको चालीस हजार के लगभग लाभ हुआ है। देखें, इसमें से माँ कितना दान करवाती है।’’
इसपर रामचन्द्र बोल उठा, ‘‘फकीर भैया ! मुझको इसमें सन्देह है। क्या तुम इसका ब्यौरा बता सकते हो?’’
‘‘हाँ, क्यों नहीं? देखो, जब मैं इस गाँव में आया था, तब मेरे पास छः सौ रुपया ही था। मेरे डाकखाने की किताब से यह बात प्रकट होती है। अब आज की बात सुन लो। ललितपुर के बीकानेर बैंक में मेरा नकद बीस हजार रुपया जमा है। यहाँ के डाकखाने में भी मेरा दो हजार रुपया रखा है। लकड़ी बेचनेवालों से मैंने पाँच हजार रुपया लेना है। मेरा इंजिन, आरा मशीन, आटा चक्की और लड़ी का स्टाल लगभग दस हजार का है। गेहूँ और भूसा, जो बिक चुका है, परन्तु जिसका दाम अभी वसूल नहीं हुआ, आठ हजार छः सौ रुपये से ऊपर का है। इसके अतिरिक्त मेरा नकद मकान पर जो खर्च हुआ है, वह दस हजार रुपया है। ये मोटी-मोटी रकमें ही पचपन हजार की हैं। इसके अतिरक्त नींब, गन्ने, आम के पेड़ हैं।
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