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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640
आईएसबीएन :9781613010617

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘इसलिए कि उसका पट्टा पहले हो चुका था।’’

‘‘किसके नाम हो चुका था?’’

‘‘मेरे नाम। वह मैं आपके आने से दो वर्ष पूर्व ले चुका था।’’

‘‘ओह ! तो सबसे अच्छी जगह तुमने ले ली है।’’

‘‘अच्छी है अथवा बुरी, जो कुछ भी है, वह तो ले ली गई है।’’

‘‘मुझसे-अदला-बदली कर लो।’’

फकीरचन्द हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा, ‘‘यह बात तो आज विचारणीय नहीं है। आज तो तुम अपनी भूमि को काम में लाने योग्य बनाने के लिए आये हो। पहले तो उसकी बात करनी चाहिए।’’

‘‘इसपर अपनी जिन्दगी बरबाद कर दूँ?’’

‘‘तो रामचन्द्र ! सेठजी को लिख दो। राजा साहब की भूमि और भी है। उसको भी देख लिया जाय। अभी तो कुछ हानि नहीं हुई।’’

‘‘मैं भी यही समझता हूँ कि काम आरम्भ करने के पहले, तनिक अपनी भूमि को और राजा साहब की दूसरी भूमि को देख लूँ। तभी काम आरम्भ करने का विचार कर सकता हूँ।’’

‘‘तो यह भूमि तो तुम आज ही देख लो। कल जखलौन स्टेशन पर चले जाना। नदी पर पाँच मील ऊपर पुल है। वहाँ से ताँगा जाता है। स्टेशन के समीप से ही राजा साहब की भूमि आरम्भ होती है।’’

‘‘आप चौधरी को मेरे पास छोड़ दीजिए। मैं इस भूमि के विषय में जानकारी इससे लूँगा।’’

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