उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
करीमखाँ को लड़की की शोखी पसंद आई। एक भटियारिन के मैले और धुएँ से काले हुए कपड़ो में एक अति सुंदर मुख दिखाई दिया। बड़ी-बड़ी आँखें और मोटे-मोटे लाल होंठ, उभरती जवानी के लक्षण देख वह मुग्ध होकर उसका मुख देखता रह गया।
लड़की अब चने और रेत को कड़ाही में से छननी में ले हिला रही थी। उसने रेत कड़ाही में छन जाने पर भुने चने समीप रखी टोकरी में डाल दिए और दुकान के बाहर खड़े सिपाही से बोली, ‘‘मेरे मुख को क्या देख रहे हो? क्या चाहते हो?’’
करीमखाँ ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘पर मैं तिलंगा नहीं हूँ।’’
तिलंगे दक्षिण के सिपाहियों को कहते थे जो रोजगार की तलाश में उत्तरी भारत में राजा-रईसों की नौकरी करते थे। वे प्रायः हिंदू होते थे। करीमखाँ तो पठानी सलवार और कुर्ता तथा कुर्ते पर कुर्ती पहने हुए था।
लड़की ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘तिलंगे नहीं तो लफंगे जरूर हो। किसलिए खड़े हो?’’
करीमखाँ को शहंशाह के सड़क पर खड़े प्रतीक्षा करने की बात याद आ गई। इस कारण उसने मतलब की बात कर दी, ‘‘यहाँ घोड़ों की नाल लगानेवाला कोई लोहार है?’’
‘‘सराय के फाटक के भीतर साथ ही लोहार की दुकान है। वह नाल लगा देगा। किसकी नाल उखड़ गई है?’’
करीमखाँ मुस्कराया और शहंशाह की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने कहा, ‘‘जहाँपनाह! एक लोहार का पता चला है। लाइए घोड़ा, अभी ठीक करवा लाता हूँ।’’
‘‘और यह किस शै की दुकान है?’’
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