उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
इस दिन इस सराय के सामने से गुजरते हुए अकबर के घोड़े की नाल उखड़ गई। घोड़े ने लँगड़ाकर चलना आरंभ कर दिया। अकबर एक अनुभवी घुड़सवार होने के कारण घोड़े के लँगड़ाने को देख उसे खड़ा कर उतर गया। उसके साथ आ रहे आधा दर्जन सिपाही भी खड़े हो गए। अकबर ने सिपाहियों के सालार से कहा, ‘‘करीमखाँ! देखो, यह कौन-सी जगह है।’’
करीमखाँ इस वीराने में एक पक्का मकान बना देख उसकी ओर चल पड़ा। मकान एक अहाते की सूरत-शक्ल का था और अहाते में यात्रियों के रहने के कमरे थे। अहाते के भीतर जाने के लिए एक फाटक बना था और फाटक के बाहर एक दुकान और प्याऊ थी। दुकान भुने चने की थी और चना खानेवालों के लिए मिट्टी के मटके में ठंडा पानी रहता था। चने खाने पर वहाँ जल बिना दाम के मिलता था। दुकान में चना भूनने की भट्टी भी थी।
करीमखाँ शहंशाह को सड़क पर ही छोड़ इस दुकान की ओर आया और दुकान में बैठी एक कमसिन लड़की को कड़ाही में गरम-गरम रेत में चनों को भूनते और हिलाते देख पूछने लगा, ‘‘ए लड़की। यह कौन-सी जगह है?’’
लड़की ने अपना सिर चनों की कड़ाही से ऊपर उठा इस प्रश्न करने वाले की ओर देख कह दिया, ‘‘ए तिलंगे! यह भटियारिन की सराय है।’’
करीमखाँ लड़की की हाजिर जबावी पर विस्मय से उसके मुख को देखने लगा। लड़की ने उसे अपने मुख को देखते हुए कह दिया, ‘‘जेब में दाम है तो सराय में ठहर सकते हो।’’
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