उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘एक भटियारिन की दुकान है और यह सराय है। नाम है भटियारिन की सराय।’’
‘‘हुज़ूर!...’’ करीमखाँ लड़की के विषय में कुछ कहना चाहता था, परंतु अन्य सिपाहियों की उपस्थिति में कह नहीं सका और घोड़े की लगाम पकड़ लँगड़ाते घोड़े को लेकर सराय के फाटक की ओर चल पड़ा।
दुकान के बाहर एक पीपल का पेड़ था और उस पेड़ के साए में बैठ यात्री चने खाया करते थे और ठंडा पानी पी चनों का दाम दे चल देते थे। जो दिन के चौथे प्रहर पहुंचते थे और सूर्यास्त से पूर्व मंजिल पर पहुँचने की आशा नहीं रखते थे, वहीं सराय में रह जाते थे। सराय में दो पैसे नित्य के भाड़े पर मिलने वाली खाट से लेकर एक रुपया नित्य पर मिलने वाले कमरे तक का प्रबंध था। सराय के फाटक पर एक व्यक्ति खाट डाले बैठा था। उसने करीमखाँ को लँगड़ाते घोड़े के साथ आते देखा तो समझ गया कि घोड़े की नाल उखड़ गई है। उसने खाट पर बैठे-बैठे ही हाथ से लोहार की दुकान की ओर संकेत कर दिया।
करीमखाँ उस ओर चला गया। अकबर सड़क पर खड़ा रहने के स्थान, भटियारिन की दुकान के बाहर पीपल की छाया में आ खड़ा हुआ। लड़की फिर चने के दाने कड़ाही की रेत में डाल हिलाने लगी थी। वह दूसरे हाथ से कड़ाही के नीचे सूखे पत्ते इत्यादि डाल-डालकर आग को तीव्र कर रही थी।
अकबर की दृष्टि भी भटियारिन की ओर गई तो वह उसकी रूप-रेखा पर मुग्ध हो गया। उसने दुकान के सामने जाकर कहा, ‘‘सुंदरी! एक टके के चने दो।’’
|