उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
उसे पकड़कर खाने के कमरे में ले जाया गया। दस्तरखान बिछा था और दोनों के लिए चौकियों पर चाँदी के थालों में खाना परोसा हुआ था। कई प्रकार की सब्जियाँ, मांस और पुलाव थे और उनमें से धीमी-धीमी सुगंध उठ पूर्ण कमरे में फैल रही थी। सुगंध से ही सुंदरी के मुख में लार टपकने लगी थी। एक गंगा-युमनी सुराही दोनों थालों के बीच में रखी थी और दो सोने के प्याले थालों के पास रखे थे।
यह सब कुछ सुंदरी के लिए नया और स्वप्नवत्-सा था। अपने पति के साथ बातचीत करने से इतना तो समझ चुकी थी कि उसकी ससुराल में भटियारिन की सराय से बहुत अच्छा खाना और पहरावा मिलेगा, परंतु इस समय के अपने वस्त्रों और खाने के बरतन तथा खाने की भीनी-भीनी सुगंध से वह उस कल्पना को भूल गई थी जो वह अपने पति के घर की बना चुकी थी।
अकबर ने उसे बैठने को कहा तो वह बैठ गई। उसने सुंदरी के प्याले को सुराही में से मदिरा निकालकर भर दिया। स्वयं एक-आध चुस्की लगा उसने कहा, ‘‘सुंदरी! थोड़ा यह शरबत चखो। फिर खाने का स्वाद आ जाएगा।’’
सुंदरी ने किंचित् हरे रंग का शरबत चखा। वह उसके स्वाद और सुगंध पर मुग्ध हो गई। पीते ही उसका चित्त प्रफुल्लित होने लगा। दोनों खाना खाने लगे।
सुंदरी तो यह भी नहीं जानती थी कि क्या और किस प्रकार खाया जाता है। लेकिन वह इतनी बुद्धि रखती थी कि शहंशाह को देख-देखकर वैसा ही करे। जो और जैसे वह खाता था वैसे ही वह खाने लगी।
खाना समाप्त होने तक उसे अपना भूत विस्मरण हो चुका था। वर्तमान अति रसयुक्त प्रतीत हो रहा था और भविष्य के वह स्वप्न लेने लगी थी। राजरानी का शब्द उसके कानों में अभी भी गूँज रहा था।
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