उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
भोजन समाप्त हुआ और अकबर उसकी बाँह को अपनी बाँह में डाल शयनागार में ले गया।
प्रातःकाल अकबर उठ वस्त्रादि पहन आगरा चला गया। सुंदरी अभी भी गहरी नींद सो रही थी। वह पिछले पंद्रह वर्ष के परिश्रम की थकावट उतार रही प्रतीत होती थी।
जब उसकी नींद खुली तो वह अवस्त्र बिस्तर पर चादर में लिपटी पलँग पर अकेली पड़ी थी। कमरे में कोई नहीं था। इस कारण वह रात के सुख और आराम को स्मरण कर रही थी। इस समय उसे समझ आया कि वह सर्वथा नग्न है। इस विचार के आते ही वह लपककर पलँग के नीचे उतर सामने चौकी पर रखे वही वस्त्र पहनने लगी जो उसे रात पहनाए गए थे।
उसके उठने और हिलने-डोलने से नगर चैन की मुहाफिज़ भीतर आ गई और पूछने लगी, ‘‘जाग पड़ी हो?’’
‘‘हाँ! मगर...’’, वह पूछना चाहती थी कि उसके पलँग का साथी कहाँ गया है।
मुहाफिज़ औरत समझ गई और बोली, ‘‘शाहंशाह तो आगरा अपना राजपाट सँभालने गए हैं। फुरसत मिलने पर आने को कह गए हैं। तब तक तुम्हें यहाँ रखने और सब किस्म का सुख और आराम देने के लिए हुक्म फरमा गए हैं।’’
‘‘और अम्मी! तुम्हारा क्या नाम है?’’
‘‘बस यही जो तुमने अभी लिया है।’’
‘‘क्या लिया है?’’
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