उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘तुम्हारा विवाह।’’
‘‘वह तो हो चुका है।’’
‘‘सच? किससे?’’
‘‘नाम नहीं बता सकती। आगरा में रहता है।’’
‘‘कोई भटियारा है?’’
‘‘नहीं। वह कहता था कि वह बहुत बड़े रईस का पुत्र है।’’
‘‘और तुमको चने भूनने पर लगा गया था! देखो, हम तुम्हें राजरानी बना देंगे।’’
‘‘मगर यह तो पाप होगा।’’
‘‘वह एक घूँट शराब से घुलकर बह जाएगा।’’
‘‘हुजूर! मुझ पर दया की जाए।’’
‘‘वह करने जा रहा हूँ। तुमको मालामाल कर दूँगा।’’
‘‘धर्म से पतित कर?’’
‘‘वह क्या होता है?’’
‘‘पंडित जी ने विवाह करते समय कहा था कि परमात्मा ने हमें पति-पत्नी बना दिया है। अब हमें एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक बरतना चाहिए।’’
अकबर ने कुछ विचार किया और कहा, ‘‘वह तुम अब भी रह सकोगी। हम इसमें हारिज नहीं होंगे।’’
लड़की संस्कारों से ही जानती थी कि सहवास ही प्रेम का लक्षण है। परंतु कुछ कहने का अवसर नहीं था। बाहर घंटी बजी तो अकबर पलंग से उठा और लड़की को बाँह से पकड़कर बोला, ‘‘चलो, खाना खा लें। खाने के बाद दिमाग ठीक तरह चलने लगेगा।’’
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