उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘सुना है। मगर क्या उन्हें एक भटियारिन लकड़ी से अच्छी लड़की और नहीं मिली?’’
‘‘तुम जहाँ की औरतों में सबसे ज्यादा खूबसूरत हो।’’
‘‘मगर एक शादीशुदा औरत के साथ तो उनका सहवास महा पाप हो जाएगा।’’
‘‘शहंशाह के लिए सब जायज़ है।’’
सुंदरी अपने अज्ञात पति के साथ सहवास कर चुकी थी। इससे वह समझती तो थी कि उससे क्या किया जानेवाला है। परंतु वह पति के उस रात के उपरांत पुनः उसकी सुध न लेने पर निराश और उदास थी। इससे वह समझ नहीं रही थी कि उसकी अवस्था तदनंतर क्या होगी। क्या उसे राजमहल में स्थान मिलेगा अथवा अपने पति की भाँति त्यक्ता ही रहेगी।
जब शहंशाह दो घंटे विश्राम कर चुके तो सुंदरी को उनके समक्ष उपस्थित किया गया। अकबर उसे इन वस्त्रों में तथा श्रृंगारयुक्त देख बहुत प्रसन्न था।
‘‘क्या नाम है?’’ अकबर ने पूछा।
‘‘सुंदरी।’’
‘‘ओह! तुम सचमुच ही बहुत सुंदर हो।’’
लड़की अभी भी सामने खड़ी थी। अकबर पलंग पर बैठा था। नगर चैन की मुहाफिज स्त्री को संकेत किया गया तो वह सुंदरी को वहाँ छोड़ कमरे से निकल गई।
अकबर ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘अब रोओगी तो नहीं?’’
‘‘हुज़ूर! मेरा क्या करने जा रहे हैं?’’
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