उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
एक दिन रामकृष्ण ने पत्नी को कहा, ‘‘इस सुंदरी की माँ का पता करना चाहिए। वह डिब्बा खोलकर देखा जाए।’’
वह स्त्री मरने से पूर्व राधा को एक डिब्बा दे गई थी। राधा ने वह डिब्बा अपने संदूक में से निकाला और खोलकर देखा तो उसमें कुछ जड़ाऊ भूषण थे। भूषणों में नग बहुत चमक-दमक वाले थे। इससे रामकृष्ण को समझ आया कि भूषण रत्न-जड़ित हैं। अवश्य बहुत मूल्यवान् होंगे। भूषणों के साथ एक सौ स्वर्ण मुद्राएँ थीं और एक कागज था जिस पर कुछ लिखा था जो घर का कोई भी प्राणी पढ़ नहीं सका।
एक दिन वह लिखा कागज ले गाँव में गया और वहां पंडित को ढूँढ़ उससे वह कागज पढ़ने के लिए कहने लगा।
कागज पर लिखा था, ‘‘मैं घर से भागी जा रही हूँ। मेरे पेट में बच्चा मेरी अवैध संतान है। मैं विधवा हूँ और गर्भ धारण कर बैठी हूँ।
‘‘मैं नाम नहीं बताऊँगी। जिस किसी को यह संदूकची मिले वह उससे, यदि मेरा बच्चा जीवित रहा तो, उसका पालन-पोषण करे। यह मेरी अंतिम इच्छा है। मेरी लज्जा की बात मेरे बच्चे को न बताई जाए। उसे कहा जाए कि उसकी माँ जन्म देने के उपरांत बिना पता बताए मर गई है।’’
रामकृष्ण ने तीन भाइयों में एक उनकी बहन समझ सुंदरी का पालन-पोषण करना आरंभ कर दिया।
सुंदरी बहुत सुंदर और बुद्धिशील लड़की सिद्ध हुई। मोहन आदि तो उसका सामने बहुत ही मोटी बुद्धिवाले जीव थे। लड़की कुमारी के पेड़ की भाँति बढ़ने और फैलने लगी। जब अभी सुंदरी चौदह वर्ष की थी कि एक यात्री की उस पर दृष्टि पड़ गई और वह उससे विवाह का हठ करने लगा।
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