उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘ओह!’’ राधा के मुख से निकल गया। उसने कहा, ‘‘इस अवस्था में यात्रा पर क्यों निकली हो?’’ राधा ने आश्रय दे उस स्त्री को घोड़े से नीचे उतारा और मोहन को आवाज देने लगी। मोहन आया तो राधा ने कहा, ‘‘शीघ्र बड़ा कमरा खोल दो और देखो उस पर बिस्तर इत्यादि लगा दो।’’
स्वयं राधा उस स्त्री को आश्रय देती हुई उसी कमरे की ओर लेकर चल पड़ी। चलते हुए राधा ने पुनः पूछा, ‘‘बहुत कष्ट है?’’
‘‘नहीं। परंतु रह-रहकर पीड़ा उठ रही है। वह भी बहुत कष्टप्रद नहीं। इस पर भी अब शीघ्र ही इससे छुटकारा पानेवाली हूँ।’’
मोहन भागकर गया। कमरा खोल सब सामान झाड़-फूँककर बिस्तर लगाने लगा। तब तक राधा उस स्त्री को कमरे के बाहर एक चौकी पर बिठाकर दया के भाव से उसके मुख को देखने लगी। स्त्री इस समय पीत मुख थी। उसका मुख और हाथ-पाँव हल्दी के समान पीतवर्ण हो रहे थे।
चौकी पर बैठे-बैठे स्त्री के मुख पर बल पड़ा तो राधा समझ गई कि प्रसव-वेदना उठ रही है। वेदना दो क्षण तक ही रही और फिर शांत हो गई।
मोहन कमरे से निकला और माँ को बताने लगा, ‘‘माँ! सब ठीक है।’’
राधा ने कहा, ‘‘मंगतू से कहो कि दूध गर्म कर ले आए। जल्दी करो। बहन जी बीमार हैं।’’
मोहन सराय के फाटक की ओर भागा। मंगतू उस समय दुकान पर था। मोहन का पिता कुएँ पर खड़ा जल निकाल रहा था।
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