उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
रामकृष्ण की कल्पना का महल पंद्रह वर्ष के अनथक प्रयत्न से साकार होने लगा था। उन दिनों उसकी पत्नी राधा, बच्चे मोहन, भगवती और कल्याण तो घर के प्राणी थे। एक सेवक भी रखा हुआ था। जो यात्रियों को भोजन खिलाने-पिलाने में सहायक होता था। दो-तीन सहस्र रुपए वार्षिक की बचत होती थी और उसका अधिकांश रामकृष्ण सराय को अधिक और अधिक सुखप्रद तथा सुंदर बनाने में व्यय करता था। सराय के प्रांगण में छोटी-सी फुलवाड़ी भी लग गई थी। एक कमरा तो दरी, पलँग और बैठने की चौकियोंवाला बन गया था। इस कमरे के साथ पृथक् शौचालय भी बना दिया गया था।
कमरे का भाड़ा दो रुपये और भोजन भी विशेष, घी-चीनी युक्त, दूध प्रति यात्री एक रुपया होता था।
इन्हीं दिनों एक स्त्री आगरे की ओर से एक घोड़े पर धीरे-धीरे चलती हुई आई और भटियारिन की सराय में ठहरने के लिए द्वार पर ठहरी तो रामकृष्ण की पत्नी राधा, जो दुकान का काम करती थी, दुकान से निकल आई। धोड़े की लगाम पकड़े एक व्यक्ति साथ-साथ चला आ रहा था।
राधा को समझ आया कि घोड़े पर सवार गर्भ से है और वह भी पूर्णता तक पहुँच चुकी है। यह देख वह लपककर दुकान से निकल घोड़े के पास चली आई।
‘‘बहन! यहाँ ठहरने का विचार है?’’ राधा ने पूछ लिया।
‘‘और कर ही क्या सकती हूँ? मुझे प्रसव-पीड़ा होने लगी है।’’
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