उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
पड़ोस के गाँव के भटियारे की लड़की युवा हो रही थी। रामकृष्ण को परिश्रम से उन्नति करते देख भटियारे ने ही अपनी लड़की का विवाह उससे कर दिया। अब दो के स्थान पर चार हाथ कार्य करने लगे तो रामकृष्ण की दुकान और निवास आरामगाह का रूप धारण करने लगे। रामकृष्ण के पास रुपए भी एकत्रित होने लगे।
पाँच वर्ष में रामकृष्ण ने सराय बना ली। इस समय तक उसके तीन संताने भी हो चुकी थीं। गाँव में भटियारे के कार्य से सड़क पर यात्रियों की सेवा अधिक लाभ वाला काम सिद्ध हुआ।
दस वर्ष में रामकृष्ण का बड़ा लड़का मोहन आठ वर्ष का हो गया। उससे दो छोटे लड़के भी थे। नाम था भगवती और कल्याण। तब तक सराय पक्की ईंटों की बनने लगी थी। जो यात्री वहाँ रात को रहते उन्हें एक रात रहने का आधा रुपया देना पड़ता और उसी आधे रुपये में उसे एक समय की रोटी मिल जाती थी। अन्न-अनाज बहुत सस्ता था। एक रुपये का दो मन गेहूँ, बीस सेर गुड़ था। शाक-भाजी यात्रियों के मतलब की और दाल, नमक, मिर्च सब मिलाकर एक व्यक्ति के समय के खाने पर तीन-चार पैसे से अधिक नहीं बैठता था। सेवा रामकृष्ण की पत्नी और बच्चे कर देते थे और पाँच से दस तक यात्री वहाँ आकर रात को विश्राम पाते थे। इस प्रकार पाँच-छः रुपये नित्य की आय सराय की कोठरियों से हो जाती थी और निर्वाह तथा उन्नति मजे से होने लगी थी।
पाँच वर्ष और व्यतीत हुए तो सराय के अहाते के चारों और पक्की दीवार और उसमें तीन खुले बरामदे तथा सात कोठरियाँ बन गईं थीं। जो खुले बरामदों में सोते थे उनको खाट तथा खाना चार आने में मिल जाता था और जो कमरा लेते थे उनको बारह आने प्रति प्राणी देने पड़ते थे। कोठरियों में प्रायः बाल-बच्चों के साथ यात्रा करने वाले ठहरते थे।
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