लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610
आईएसबीएन :9781613010891

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


‘‘रुपये की आप फिक्र क्यों करते हैं? मकान बन जाएगा। आप उसमें रहने लगेंगे। तब थोड़ा-थोड़ा कर दे दीजिएगा।’’

‘‘सूद क्या लोगे?’’

‘‘हमारे मजहब में सूद लेना हराम है।’’

‘‘मगर मकान का किराया लेना तो हलाल है न। जब तक रुपया नहीं दूँगा, मकान का किराया समझकर ले लेना।’’

नूरुद्दीन गम्भीरता से विचार करने लगा था कि हजरत वली-उल-इस्लाम ने यह किराये के लिए शरा क्यों नहीं बनाई? सूद के लिए यह फरमान क्यों जारी किया है? मगर वह न तो शरा की बहुत बातों को जानता था, न ही उसको इस विषय में बहुत सोचने की जरूरत पड़ी। उसने कह दिया, ‘‘आप छः महीने के लिए किसी दूसरे मकान में रहने का बन्दोबस्त करिए। बकाया मुझपर छोड़िए। मैं सब कर लूँगा।’’

‘‘भाई, मेरे पास छः-सात हज़ार रुपया मकान पर लगाने के लिए नहीं है।’’

‘‘आपकी कृपा से भगवान के भाई नूरे के पास है।’’

नक्शा बन गया। मंजूर हुआ और जब तक भगवान डॉक्टरी की पढ़ाई के आखिरी साल में पहुँचा, मकान बनकर तैयार हो गया। मकान में नया फर्नीचर लग गया। भगवानदास के लिए रोगियों के देखने का कमरा, एक कमरा रोगियों के लिए परीक्षा करने का और एक निरीक्षण का कमरा बन गया। यह सब मकान की नीचे की मंजिल पर था। पहली मंजिल पर भगवानदास और उसके पिता की बैठकें थीं तथा बच्चों के पढ़ने के लिए कमरे थे। दूसरी मंजिल पर स्त्री-वर्ग के रहने के कमरे थे और रसोई-घर था। उसके साथ ही गुसलखाना इत्यादि थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book