उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘नहीं, मैं तो यह विचार कर रहा हूँ कि सादिक मियाँ को ठग लिया हैं मैंने! एक अनमोल शै को कौड़ियों के मोल पा गया हूँ।’’
‘‘वह बाँदी आपके पाँस सौ रुपये का बदला चुकाने की कोशिश कर रही है। मेरा ख्याल है कि अपने दोस्त भगवानदास को पाँच-दस हजार का मकान बनवा देंगे तो यह सौदा भी घाटे का नहीं रहेगा।’’
इस तरह समझा-बुझाकर करीमा ने नूरुद्दीन को लोकनाथ के पास भेज दिया। नूरुद्दीन ने प्रस्ताव रखा तो लोकनाथ ने इसको टालने का यत्न किया, मगर नूरुद्दीन ने बात नहीं छोड़ी। उसने कह दिया, ‘‘बाबूजी! मैं आपको सत्य कहता हूँ कि भापा भगवान की अपनी प्रैक्टिस चलाने के लिए मकान और रोगी देखने का मतब (चिकित्सालय) साथ-साथ होने चाहिए। यह मकान पुराना है, यहाँ अँधेरा है और यह ढंग का बना भी नहीं। इससे कहता हूँ नहीं तो वह डॉक्टर बनते ही किसी भाड़े के मकान में चला जाएगा और जिन्दगी का मजा नहीं रहेगा। कहिए तो नए मकान का नक्शा बनवाऊँ?’’
‘‘कितना रुपया लग जाएगा?’’
‘‘नक्शा बन जाने के बाद ही इसका अन्दाज लग सकता है। इस पर भी छः-सात हजार तो लग ही जाएगा।’’
‘‘नूरे! इतना रुपया हमारे पार नहीं है।’’
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