लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610
आईएसबीएन :9781613010891

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


मकान को देख, सबसे अधिक प्रसन्नता भगवानदास के भाई-बहन नरोत्तम और मोहिनी को हुई थी। रामदेई को विदित था कि रुपया सब-का-सब नूरुद्दीन खर्च कर रहा है। इस कारण उसको न तो खुशी थी, न ही नाराज़गी। लोकनाथ तो यह समझता था कि यह उनकी सरकारी विभाग निर्माण में सिफारिश करने की रिश्वत मिली है। उन्हीं दिनों में इस कम्पनी को एक सड़क निर्माण का ठेका मिला था। बीस मील लम्बी पक्की सड़क बननी थी और इस पर लगभग एक लाख रुपया लगना था। प्रीमियर कन्स्ट्रक्शन कम्पनी का टेंडर काफी ऊँचा था और सरकारी अनुमान से अधिक था। इस पर भी एग्ज़िक्यूटिव इंजीनियर को किंचित् मात्र संकेत करने से वह मंजूर हो गया था। लोकनाथ का विचार था कि इस काम में उसको उसके मकान की लागत से कहीं अधिक लाभ मिलने वाला है। इससे वह यह मकान मिलना अपना अधिकार समझने लगा था।

मकान जब बन गया तो लोकनाथ ने पूछ लिया, ‘‘नूरुद्दीन! मकान का हिसाब-किताब तो मिल जाना चाहिए।’’

‘‘क्या करेंगे हिसाब सुनकर?’’

‘‘भाई! इन्कम-टैक्स वालों को बताना पड़ेगा कि रुपया कहाँ से आया है और कैसे खर्च हुआ है?’’

‘‘मिल तो सकता है। मगर आप लिख दीजिए कि हमसे उधार लेकर लगाया है।’’

‘‘पर कितना?’’

‘‘अभी आप दस हजार लिख दीजिए।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book