उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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नूरुद्दीन की शादी मैट्रिक का परीक्षाफल घोषित होने से पहले हो गई। बारात नहीं चढ़ी। नूरुद्दीन ने अपने वालिद को कह दिया, ‘‘जब वहाँ खाना-पीना नहीं होने वाला तो फिर बारात की क़्या जरूरत है?’’ जैसा खुदाबख्श ने कहा, वैसा ही सादिक ने मंजूर कर लिया।
निश्चित तिथि को खुदाबख्श अपने बहुत ही समीप के दस सम्बन्धियों को लेकर सादिक के घर पहुँच गया। मुल्ला वहाँ आया हुआ था। उसने निकाह पढ़ाया और सादिक ने दस काग़ज के लिफाफों में एक-एक सेर मिठाई भर कर दस मेहमानों के दे दी। एक ज़र्दे की और दो मिठाई गुलभिस्त देकर लड़की को विदा कर दिया। उसी सायंकाल खुदाबख्श के घर दो सौ मेहमानों की दावत थी। पाँच देगें पुलाओ और गोश्त कोरमा की बनीं और तन्दूर से एक ढेर नान बनवाकर मँगवाए गए। खूब खाना-पीना हुआ। खुदाबख्श का मुहल्ले के कई हिन्दुओं से मेल-जोल था। उन सबके घर उसने मिठाई बँटवाई।
भगवानदास के पिता के घर बकरे का कच्चा मांस और कच्चे चांवल, मैदा, सूजी, चीनी, नमक-मिर्च सब कच्ची रसद पहुँच गई। लोकनाथ की पत्नी निरामिष भोजन करती थी। इनके घर मिठाई भी आई। स्त्री-वर्ग मांस नहीं खाता था। मिठाई उनके लिए थी।
नूरुद्दीन अपनी शादी के कई दिन बाद अपने दोस्त भगवानदास से मिलने आया। भगवानदास उसको देखकर हँसने लगा। बैठक में दोनों अकेले थे।
नूरुद्दीन ने पूछ लिया, ‘‘हँसते क्यों हो?’’
‘‘फुरसत मिल गई है, बीवी से?’’
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