उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘हाँ! वह आज अपनी माँ के घर गई हुई है ।’’
‘‘तो चित्त बहुत उदास हो रहा है?’’
‘‘दोस्त! घर की रोशनी चली गई मालूम होती है। इसलिए यहाँ चला आया हूँ।’’
‘‘बहुत प्यार है उससे?’’
‘‘बहुत अच्छी है, वह।’’
‘‘सुना है, कल इम्तिहान का नतीज़ा निकलने वाला है।’’ भगवानदास ने बात बदल दी।
‘‘मेरा नतीज़ा तो निकला हुआ है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘मैं फोर्थ डिविज़न में पास हूँ।’’
दोनों हँसने लगे। नूरुद्दीन ने कहा, ‘‘मैं सोचता हूँ कि तुम भी पढ़कर क्या करोगे? अपने पिताजी से कहो, कोई काम करा दें तुमको।’’
‘‘इस बात की चर्चा घर में हुई थी। पिताजी एक सौ चालीस रुपए वेतन पाते हैं। इसमें से बीस रुपए महीना वे जमा करते हैं। बीस रुपए महीना वे बीमा देते हैं। शेष सौ रुपए में हम घर का खर्च चलाते हैं। अभी तक तो काम चलता रहा है, मगर मैं कॉलेज में दाखिला लूँगा तो कम-से-कम पच्चीस रुपए महीने का खर्च मेरा बढ़ जाएगा। मेरे कपड़े और पुस्तकों आदि का खर्च पृथक् होगा। पिताजी विचार कर रहे थे, वह कहाँ से आएगा। कारोबार के विषय में भी विचार किया गया है। क्या काम किया जाए, पूँजी कहाँ से आए? पूँजी का प्रबन्ध कर भी लें तो कारोबार चल सकेगा क्या?
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