उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘क्यों?’’
‘‘बस यही बात है।’’ इतना कहकर नूरुद्दीन उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘अब मैं चलता हूँ। शादी से पहले आपसे मिलूँगा।’’
वह बैठक से बाहर को चला तो सादिक ने फूँक मारकर मोमबत्ती बुझा दी। नूरुद्दीन लौट पड़ा और कहने लगा, ‘‘देखिये! यह मेरी आपसे इल्तज़ा है। कर्ज़ बहुत बुरी बला है। इसको मत लीजिये।’’
नूरुद्दीन बैठक के बाहर आ गया। सादिक उसको देखता रह गया।
मकान की सीढ़ियों पर कम्मो और कम्मो की माँ खड़ी थी। सादिक ने बैठक का दरवाजा बन्द किया और ऊपर जाने लगा तो कम्मो की माँ ने पूछ लिया, ‘‘क्या कहता था, वह?’’
सादिक ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, यों ही।’’
अगले दिन बैठक घर की सफाई करते समय कम्मो की माँ को नोटों का एक बंडल मिला तो वह समझ गई कि नूरा छोड़ गया है। उसने कम्मो के वालिद को नीचे बैठक में बुला लिया और उसको नोटों की थई दिखाकर कहा, ‘‘यह यहाँ मोमबत्ती के पास पड़ी थी।’’
सादिक भी उन नोटों को देख, भौंचक्का रह गया। उसकी समझ में भी यही आया कि नूरुद्दीन इसे रख गया है। कम्मो की माँ ने कह दिया, ‘‘यह उसको वापस कर आओ।’’
‘‘शादी के बाद वापस कर दूँगा। अभी रहने दो।’’
‘‘तो इसमें से ही खर्च करोगे?’’
‘‘करूँगा तो सही, लेकिन बाद में इसमें डाल भी दूँगा।’’
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