उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘मैं हूँ।’’
‘‘तुम कौन? नूरा! अरे, तुम यहाँ किसलिए आए हो?’’
‘‘आपसे एक बात करनी है।’’
‘‘तो भीतर आ जाओ। कोई देख लेता तो बदनामी होगी।’’ उसने नूरुद्दीन को बाँह से पकड़ दरवाजे के अन्दर कर लिया। घर की सबसे नीचे की मंजिल में बैठक थी। बैठक खोली गई। आले में माचिस रखी थी। सादिक ने माचिस जलाकर, वहीं रखी एक मोमबत्ती जला दी। दोनों एक मैली-सी दरी पर बैठ गए। सादिक प्रश्न-भरी दृष्टि से देखता हुआ पूछने लगा, ‘‘अच्छा बेटा! बताओ, क्या काम है?’’
‘‘आप उस दिन अब्बाजान से खर्चे की बाबत कहने गए थे।’’
‘‘बात यह है नूरुद्दीन! तुम लोग अब ठेकेदारी करते हो। मैं तो दफ्तर में कलम ही घिसता हूँ। चालीस रुपए मिलते हैं। चार रुपए वहीं प्रॉविडेंट फंड में कट जाते हैं। बाकी छत्तीस रुपए में तो मुश्किल से खाना-पीना चलता है। फिर भी बेटा। कुछ तो करूँगा ही। तुम अपने दोस्तों को ला सकते हो। बारात को मिठाई तो दूँगा ही।’’
‘‘बाबूजी! मैं जानना चाहता हूँ, कितना खर्च करने वाले हैं आप?’’
‘‘अभी तो दो-ढाई सौ रुपए में काम पूरा कर दूँगा। एक सौ रुपया अपने प्रॉविडेंट फंड में से उधार मिल जायेगा। एक-डेढ़ सौ और इधर-उधर से हो जायेगा।’’
‘‘मैं यह कहने आया हूँ कि न तो आप प्रॉविडेंट फंड से लीजिये, न ही इधर-उधर से उधार लीजिये।’’
‘‘तो फिर काम कैसे चलेगा?’’
‘‘खुदा देगा। आप उधार मत लीजिए। कुछ-न-कुछ इन्तज़ाम हो जायेगा। देखिये बाबूजी! मेरा कहा मानिये, कम-से-कम इस शादी के लिए कुछ भी उधार लेंगे तो मैं शादी रोक दूँगा।’’
|