उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
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वे लोग वैंगर्स पहुँच गए। सौन्दर्य के प्रति ईर्ष्या की बात सुनकर नलिनी स्वयं अपने मन के भावों का विश्लेषण करती हुई रेस्तराँ की सीढ़ियाँ चढ़ गई थी। सुमित उसके साथ थी।
चाय पीते समय नलिनी ने अपने घर की एक और समस्या उनके सम्मुख रखते हुए कहा, ‘‘अपने विवाह से पूर्व मुझे पौने दो सौ रुपया वेतन मिलता था। अपने भोजन के लिए तीस रुपया मासिक और घर के किराये में अपने भाग का पन्द्रह रुपया दिया करती थी। इसके अतिरिक्त मैं दस रुपया माताजी को दिया करती थी। शेष में से स्वयं निर्वाह कर बची राशि को मैं बैंक में जमा करा दिया करती थी। नौकरी गई और मैं पहले से ड्यौढ़ा भार बनकर यहाँ आ गई हूँ। बैंक में भी मेरे चार-पाँच सौ रुपए से अधिक नहीं हैं। माँ हरिद्वार गई हैं तो पचास रुपए उनको भेजने पड़ते हैं। पिछले वर्ष भाभी के एक और बच्चा हो गया है। इससे उनकी भी आर्थिक समस्या जटिल हो गई है। मैं यथाशीघ्र इस पापपिण्ड से मुक्ति पा घर के बोझ को हल्का करना चाहती हूँ। परन्तु इस मुक्ति में कम-से-कम एक वर्ष लग जावेगा।’’
‘‘तुम्हारे भैया के बोझ को हम भी कुछ तो हल्का कर ही सकते हैं।’’
सुमति ने कहा।
‘‘किस प्रकार?’’
‘‘मेरा प्रस्ताव यह है कि डॉक्टर साहब एक वर्ष के लिए अपनी बहन को अपने पास बुला लें।’’
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