उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
नलिनी माँ का मुख देख फूट-फूटकर रोने लगी। माँ, उसके समीप बैठ, उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसको सान्त्वना देने लगी। उसने कहा, ‘‘बेटा, जो चाँद को पकड़ने दौड़ते हैं, वे सफल नहीं होते।’’
नलिनी ने कहा, ‘‘पर माँ! तुमने मुझे इतना पढ़ाया क्यों था? पढ़ाया था तो उसी के अनुसार रूप क्यों नहीं दिया?’’
माँ ने अपने आँचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा, ‘‘बेटा! रूपराशि ईश्वर की देन है। इसमें मेरा क्या वश है? फिर तुमको तो उसका धन्यवाद करना चाहिए कि तुम सहस्त्रों से अच्छी हो। घर में ही देख लो, अपनी भाभी से तुम किस बात में कम हो?’’
‘‘परन्तु उसको तो भैया जेसे पति मिल गए हैं और मेरे लिए तुम लोगों ने वह स्कूल मास्टर ढूँढ़ा है, मुझसे यह अपमान नहीं सहन हो सकता।’’
‘‘वह तो ठीक है परन्तु भाग्य से कौन झगड़ा कर सकता है? तुमने श्रीपति से भी अच्छे को पसन्द किया था। यदि तुम सफल नहीं हुईं तो क्या किया जाए? बेटी! जो कुछ प्राप्त हो, उसी पर सन्तोष करना चाहिए।’’
यद्यपि नलिनी ईश्वर, भाग्य इत्यादि को नहीं मानती थी, तो भी वह देख रही थी कि कुछ है, जिसने उसकी सब योजनाओं को विफल करके रख दिया था, उसके चिर-इच्छित प्रसाद को एक बालिका-मात्र लड़की छीनकर ले गई थी। इससे आज वह माँ की बात का खण्डन नहीं कर सकी। उसको चुप देख माँ ने कह दिया, ‘‘श्रीपति ने आज कृष्णा को दिल्ली आने के लिए पत्र लिखा है। वह आया तो फिर तुमको जो कुछ प्राप्त हो, उस पर सन्तोष करना चाहिए।’’
आज अपने मन की अवस्था में नलिनी कुछ कह नहीं सकी। मन भौचक्का हो, समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे।
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