उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
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नलिनी की भाभी कात्यायिनी मराठी भाषा के अतिरिक्त कुछ जानती नहीं थी। मराठी में अनूदित रामायण तथा सन्त तुकाराम इत्यादि द्वारा रचित गीत पढ़ लेती थी। उसको दिल्ली में शिक्षा प्राप्त अपनी ननद का रहन-सहन पसन्द नहीं था। यों तो वह पिछले एक वर्ष से अपने पति से हठ कर रही थी कि नलिनी का विवाह कर दिया जाए। उसका एक मामा था कृष्णकांत खड़वे। वह नागपुर के स्कूल में मास्टर था। वह चाहती थी कि नलिनी का उसके साथ विवाह कर दिया जाए। श्रीपति भी नलिनी से खड़वे की सिफारिश कर रहा था, परन्तु नलिनी नहीं मानी। पिछले दिन भी जब श्रीपति ने नलिनी और प्रो० सुदर्शनलाल में वार्तालाप को सुना था, तो उसने बहन का ध्यान खड़वे की ओर पुनः आकर्षित किया था, परन्तु नलिनी ने स्पष्ट इन्कार कर दिया था। आज नलिनी इतनी निराश थी कि उसे अपना भविष्य अन्धकारमय प्रतीत होने लगा था और उस अन्धकार में खड़वे एक टिमटिमाते दीप की भाँति दृष्टिगोचर होने लगा।
जब वह अपने कमरे में गई, तो कात्यायिनी ने अपनी सास को पीछे-पीछे भेज दिया। उसने नलिनी का मुख धोबी से धुले सफेद वस्त्र के समान श्वेत हुआ देखा था और वह समझ गई थी कि इस समय वह अत्यन्त दुःख तथा निराशा से पीड़ित है। अतः उसने अपनी सास को यह कहा था कि बहन को सान्त्वना मिलनी चाहिए और माँ ही यह दे सकती है।
श्रीपति की माँ अपने पढ़े-लिखे पुत्र तथा पुत्री की बातों में हस्तक्षेप नहीं किया करती थी, परन्तु इस समय वह भी निश्चय नहीं रह सकी। वह जानती थी कि नलिनी के जीवन में काष्ठा की अवस्था उत्पन्न हो गई है। वह उसके कमरे में गई। नलिनी वस्त्र बदलकर बिस्तरे पर लेटी करवटें ले रही थी। माँ ने पुकारा, ‘‘बेटा नलिनी! क्या कर रही हो?’’
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