उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
|
1 पाठकों को प्रिय 327 पाठक हैं |
बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘क्या हानि है इसमे! आइए।’’
नलिनी उठकर साथ हो ली।
जब ये स्त्रियाँ वहाँ पहुँची, सुमति कपड़ों में लिपटी हुई स्नान के लिए तैयार थी। उसने अपना मुख लपेटा हुआ था। नलिनी को सन्तोष नहीं हुआ। उसने इत्र, जो निष्ठा लाई थी, लगाने के लिए, मुँह पर से कपड़ा उठा दिया और उसके गालों पर इत्र लगाते हुए उसकी मुँदी हुई मोटी-मोटी आँखों को देखा। सत्य ही सुमति चन्द्रमुखी थी और नलिनी उसके सम्मुख स्वयं को चाँदनी में छाया समान ही पाती थी।
फिर भी सुमति को सर्वथा अल्हड़ आयु की देख, नलिनी उसको पराजित करने की आशा करने लगी।
इस समय इससे अधिक कुछ नहीं हो सका। नलिनी, उषा, निष्ठा तथा इनके साथ आई दो अन्य स्त्रियाँ, पाँचों बारात के आने तक वही रहीं।
बारात आई और खाना-पीना हुआ। खाने के बाद नलिनी सीधी अपने घर चली गई। घर पर नलिनी की भाभी कात्यायिनी, उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसने पूछ लिया, ‘‘ननद रानी। कहाँ गई थीं?’’
‘‘प्रो० सुदर्शनलाल की बारात में सम्मिलित होने के लिए।’’
‘‘हम तो तुम्हारी खातिर ही नहीं गए और तुम चली गई, बिना हमको बताएँ?’’
नलिनी ने उत्तर नहीं दिया और अपने कमरे में चली गई।
|